सम्मेलन - पत्रिका भाग - 62 | Sammelan Patrika भाग - 62
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
227
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
डॉ प्रेम नारायण शुक्ल का जन्म कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील के अंतर्गत ओरिया ग्राम में २ अगस्त, सन १९१४ को हुआ था। पांच वर्ष की आयु में माता का निधन हो गया था, पिता जी श्री नन्द किशोर शुक्ल, वैद्य थे। आपकी सम्पूर्ण शिक्षा -दीक्षा कानपुर में ही हुई। सन १९४१ में आगरा विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ थाl इसी वर्ष अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की 'साहित्यरत्न' परीक्षा में भी आपको प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त हुआ। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा चलाये गए अखबार 'प्रताप' से शुक्लजी ने अपने जीवन की शुरुआत एक लेखक के रूप में की l
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)थ् सिर गम लमपिसमतवलिसा - गे
* ... बात यह है कि मध्यकाल का रीतिंवादी प्रवाह 'प्रतिमा' की जगह 'ब्युत्यत्ति' और .
'अम्यास' मर बस देता या। “व्युत्पत्ति' और 'अम्यास' पूर्व निर्धारित प्रतिमानों से संबंध स्थिर
कर लेते हैं। रीतिकाल की अधिकांश विशिष्ट, ब्यूत्पन्न प्रतिमाएँ दरवारों में सिमट मई थीं।
इन सब कारणों से साहित्य का प्रवाह प्रचुर सात्रा में दरबारी सानसिकता से जुड़े मय: था,
रियाज का प्रदर्शन करने में लग गया था--तेली के बैल के मानिद एक ही परिधि में घूमने
लय गया था। समाज के एक बड़े माय की सामसिकता उससे कट गई थी। हस प्रकार यह
भावधारा आवृत्त हॉकर निर्जीव होने लगी थी। इसलिए इस ढँचि का ठच्या “रसबाद' खुली
सामाजिकता, जीवन और जयत् से संबद्ध साहित्यिक अभिश्यम्ति के लिए अपर्याप्त पढ़ने रा
था। साथ ही इस समय तक साहित्य पद्यात्मक प्रचुर था जिसमें स्वमावत: आपेक्िक. रूप से
बतंमान से पीछे रहा जाता है। वाजपेयी जी तक गदसाहित्य ने अपनी पर्याप्त समृद्धि प्राप्त
कर सी थी। मद्य साहित्य में व्यक्त माददकों की जगह यथय में 'वर्तमान', 'ययार्थ' अधिक मुखर
झोता है और कथा साहित्य के माध्यम से अधिक मुखर भी होने लग गया था। रस. सिद्धान्त
का इस साहित्य पर किस प्रकार संचार किया जाय---इसकी चिता शुक्लजी को ही हो गई थी ।
काव्यसूप की दृष्टि से 'प्रबन्च' के पक्षकार शुक्छजी अपेक्षा 'प्रगीत' के पक्षघर वाजपेयीजों
को रससिद्धान्त के संचार की यहाँ भी चिंता थी, जिसके फलस्वरूप उन्होंने प्रतिष्ठापित किया
कि प्रबन्ध की अपेक्षा प्रगीत में रस-धारा का छिरक। रेखा रहित आस्वाद होता है। सब कुछ
कहने का अभिप्राय यह कि क्रमायत तथा रीतिकालीन रूढ़ियों के घेरे में आकार प्रहण करने
बाले रससिद्धान्त पुनः विचार करने की आवदयकता बिवेचकों को महसूस हुई। एक तो
जैसा कि ऊपर कहा गया कि पुरातन काव्यरूपों की अपेक्षा नई अनुभूति से नए काव्यरूप फूट
रहे थे। दूसरे यह कि काव्यगत वस्तुवैविध्य का क्षेत्र बढ़ता जा रहा था। तीसरे यह कि भावो-
लेजक सामग्री के अ्हण की दृष्टि भी बदलती जा रही थी। चौथे आदर एवं जीवन-मूल्यों
में तेजी से परिवर्तन होता जा रहा था। परिवर्तन पढले मी द्वोता था, परिवर्तन अब मी हो
रहा था--हो रहा है, पर पहले का परिवर्तन इतनी धीमी गति से होता था कि वह असंलक्ष्य
क्रम था, आधुनिककाल का परिवर्तन छलाँय मारता हुआ.आ रहा हैं। इसलिए इसे 'पुरातन'
से काट कर कमी-कमी 'नया' कहने का उपक्रम सी हुआ है। इस 'बिच्छेद' वादी प्रवृत्ति ने
साहित्य को काफी नुकसान पहुँचाया है। पाँचवें साहित्य का संबंध जिस सामाजिक चेतना
से है--वह भी बदल रही थी--ये सब बातें 'रस' के स्वरूप में कस्तिकारी परिवर्तत की मांग
कर रही थीं अथवा. उसकी अंपरयाप्तिता को ुनौती दे रही थीं। मही कारण है कि शुक्छजी
तया वाजपेयीजी रस के स्वकप को बमापक रूप में परिभाषित कर डे थे। दूकरजी से “रस को
'सानवीय .मनोवुतति का .पर्याम अना दिया. और इस बात पर जल दिया. कि. यदि काव्य सामथ
की कृति है तो,उसकी मेरक शुरी मानवीमता होनी चाहिए। वयंजपेयी जी ने अपनी, विवेच-
चाकों में साफ कह कि 'लॉंबय संबेदवसील' 'समुझत' सामस ने पहल काल्यास्वरद साभ रस है।
जन वे शुंझलाकर कहते: हैं-सआखिर काव्य का रस है कया; ? बह मानव मात बहू आमन्दा-
त्मकष प्रतिक्रिया है जो श्रेष्ठ साहित्य को पढ़ कर उसे उपरब्स होती. है” * “रस तो काव्यानुयूति
आाषाढ़-मार्भश्षी्ष ८. कक, १८९८] हर
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Ranjana Dixit
at 2020-09-09 15:27:33