दयानन्द की विद्वत्ता | Dayanand Ki Vidvatta

Dayanand Ki Vidvatta by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९७ ) पैरोंसें ंगर कर प्रसन्न कर रददी तो में छू मेरे ऊपर मन थक द ग् रूस हो जादो सेरे झत्िय पुन्न न हो ॥९०। जैसा श्माए ने कद्ा चय्रकसों चन्रिय सेरा परत भले हो हो सेदि- नपुन्न ऐसा न हो भाप सुकफे-यहं चरदें॥र१। सहानु त- पर्ची च्छजीस्ो दया शाइ उन्होंने कहा दि ऐसा ही होगा इसके चादू सत्यवतो ने. जसदृद्धि नासक प्रन्षको लो सहपिं हुए हैं उत्पन्न किया ॥१२॥ शौर गाधिसकी : घो यशु बाली स्त्री है चसने हे रास युचिछ्िर | न्नक्- झाता ज्रूपि चिश्वासिन्नकों पद पिया ॥ १३ पे कहां तो चेद्व्ा यद्द गीरद ' कि वेद मन्न्नोंसे स- न्च्रित चरुखे शिनके पत्र नहीं होते थे उनके पनत्न दो गये आर कहां यदस्सति जगछ २ पर झइलीसल शब्दोंयते सरसार दभ्षकों ज़रा गौरसे उोचिये । :. इसके आगे यजुबद झध्या० रपसन्त्र0 3 में स्वामी जो छापने रशिष्योंको शिक्षा दते हैं कि संघ सांपोंको गुदासे पकड़ा करो शुरू हो .तो .रुवासो स्हेसा हो छौरैर शिष्य हर ऐसे ही दों जैसे छमारे द्यानन्दी भादे स- गररऐसे, घासिंक दुयानन्दी व्ूल हैं जो इस व्ताररवाई को असतासें हाते नें *




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