दिवाकर दिव्य ज्योति [भाग १७] | Divakar Divya Jyoti [Part 17]

Book Image : दिवाकर दिव्य ज्योति [भाग १७] - Divakar Divya Jyoti [Part 17]

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
पुण्य -प्रभाव [६ सकता इसी प्रकार मुक्तारमा जीव, जिन्हे चिरन्जन पद प्राप्त हुआ है, मोक्ष सुख का ्चुभव तो करते हैं, मगर उसे प्रकट करन के लिए उनके पास भी शब्द नहीं है । वत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा जिसकी दाजिरी में खड़े रदते हैं शरीर हाथ जोड़े आज्ञा को प्रतोक्षा करते रहते हैं, उत्त छुद खड के ाधिपत्ति चक्रवर्ती का सुख उत्तम है या मोक्ष का सुख उत्तम है? झगर च ऊवर््ती का सुख उत्तम द्ोता दै तो स्वय चक्रवर्त्ती भी झ्रखड पट्ख़ड के मद्दान्‌ साम्राज्य को ठोकर सार कर क्यों मिज्लु- जीवन स्वाकार करते ? चक्रवर्त्ती स्वय अपने सुख को सोक्ष सुख की तुलना में ठुच्छ अतिवुच्छ समकता है । लोग कदते हैं--महदारा ज, मारी इच्छा साधु बनने की क्यो नहीं दोती ? मगर भाई, साघु बनने का मन होने क लिए भी पण्य की 'मावश्यकतता दे । उपदेश का झसर किस पर होता है? (जिस जीव ने पू्वें काल में प्रकृ्ट पुण्य का उपाज़न किया है, उसी को , उपदेश सुनकर तदनुसार झाचरण करने की इच्छा होती है । जिसके पास पुण्य की पृजी दो संचित नदीं है, उसे उपदेश कैसे लग सकता है ? हद देखो, अपने लाइले लघु भ्राता गज सुकुमार की शादी, के लिए श्रीकृष्ण ने £६ लड़कियाँ कुमारी 'झन्तभ्पुर में इकट्टी कर ली थीं । लड़कियाँ सब ऐसी सुन्द्री कि इन्द्र को परी दों । देवांगचाएँ भी उनका मुकाबिला नदी कर सकती थी । सिफे एक कन्या की कमी थी । राज किसी को लूली--लेंगड़ी स्त्री मिल जाय तो इजरत घमंड में फूले नद्दी समाते और सममते हैं मांचों पद्मिनी मिल गई




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now