बुध्दचरितं | Buddha Charita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४) भश्वघोष ने इन भवस्थाओं का बढ़ा सजीव वर्णन किया दे :--एपो दि देव-पुरुषो जरयाभिभरूतो * ॥ भादि । खोज करते हुए उन्होंने पाया कि तृष्णा ही सब दुःखों का कारण है । इसलिये तृष्णा की जड़ खोदने का उपदेश दिया :--- त॑ वो बदामि भदद वो यावन्ते$त्र समागता । तण्हाय मरूल॑ खनथ उसीरत्यो व वीरणम्ु ॥ ( घम्मपदं २४-४) वेदान्त ने भी वासना को दुग्ध करने का उपदेश दिया है :--- निर्देर्घवासनावीजं सत्तासामान्यरूपवान्‌ । संदसेवाचियेतो न भूयो दुःखमाग्मवेत्‌ ॥ ( योगवासिष्ठ-६-१०-१२ ) भगवान्‌ बुद्ध का यही आग्रह रहा है कि हम व्याघि की चिकित्सा करें, यह जानने का प्रयत्न न करें कि वह कहां से आई, केसे आई । इसे समझाने के लिये उन्होंने घायल भादमी का उदाहरण देते हुए कहा--'यदि किसी को विषवुक्षा तीर लगे भर वह कहे कि मैं तीर तब तक न निकलवाऊँगा जब तक यह न मालूम हो जावे कि वह कहाँ से आया है, किसने मारा है, उसका गोत्र या नाम कया है, वह कितना लंबा है, भादि तो मिच्चओ ! उस आदमी को यह पता ही नहीं लगेगा और वह मर जावेगा ।” वे अन्य बातों पर विचार करना व्यथे समझ तृष्णा के क्षय पर ही मुख्य बल देते थे । उसी को पुनंजन्म का कारण समझते थे । कुछ लोग कहते थे कि बुद्ध पुनर्जन्म को मानते थे किन्तु आत्मा को नहीं मानते थे । दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं । जब भात्मा ही नहीं तब पुन्जन्म किसका ? इसका उत्तर यह है कि अबोद्ध दर्शन जो कायं आत्मा से लेते हैं वह सारा काय बौद्ध दर्शन मन से छेता है। वे कहते हैं कि मन सभी अवस्था्ों का पू्वंगामी दे, मन ही सुख्य हे । मनुष्य मनोमय है । जब भादमी मलिन मन से बोछला या कम करता है, तब दुःख उसके पीछे ऐसी तरह लग जाता हे जेसे गाढ़ी के पदिये बैठ के पेरों के पीछे छग जाते हैं :--+




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