आधुनिक समीक्षा : कु६ समस्याएँ | Aadhunik Samiksha-kuch Samasya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हि्दी-समीक्षा : एक दृष्टि ४ भर समभकदार व्यवित को श्रग्ाह्म हो। फिर क्यों कुछ ईमानदार प्रौर श्र्छे साहित्यिक प्रगलिवाद से घबराते झौर उसे श्रादंका श्र सन्देह की पुष्टि से देखते नज़र भ्राते है? और क्यों ऐसा लगता हैं कि झाज हमारी झालोचना और साहित्य में उलकन श्रौर झ्राजकता-सी फंली हुई है ? उत्तर में मेरा निवेदन है कि दो कारणों से । एक काररण प्रगतिवादी साहित्य- दृष्टि की कुछ कमियां है, श्ौर दूसरा प्रगलिवादी श्रालोचंकों का तर्ज-श्रमल । इन दोनों पर हम क्रमदा: विचार करेंगे । पहुले हुम प्रगलिवाद की मसान्यताएँ लें । प्रगलिवाद का सतुरोध है कि साहित्य फी विपय-सामग्री सामाजिक जीवन होना चाहिए, बेयव्तिक नहीं ; सामाजिक जीवन का चित्र होना चाहिए, भ्र्थात्‌ व्यक्ति के सुख-दुम्ख एवं उन भावनाशों का जिनका मूल सामाजिक व्यवस्था में है। शुक्लजी ने भी कुछ ऐसा ही कहा था। कितु दुष्लजी ने वेयक्तिक प्रगोस-काव्य का बहिष्कार नही किया, सिर्फ़ यह कहा कि ऐंसे काष्य से प्रबन्ध-फाव्य श्रेष्ठ होता है । इस दृष्टि से प्रगलिवादी सिद्धान्त श्रधिक झतिरजित है । क्रिम्तु बंधा प्रबन्ध-काव्य प्रावशयक रूप सें गीत-काव्य से श्रेष्ठतर' होता है ? धंधा कालिदास का 'मेचदूत' भ्रेष्ठ-काव्य नही है ? झौर कया रवीर् को 'सेघनाद वध' म्रथवा 'साकेत' के रखियता से श्रायइ्यक रूप सें छोटा कहना पड़ेगा ? इसके उत्तर में प्रगतिवादी कहेगा--प्रगीत-क्ाव्य की श्रपेक्षा प्रबन्ध- काव्य लोकहित का अधिक सम्पादन कर सकता है श्रौर इसलिए अधिक ग्राह्म है। किन्तु कया काव्य अपनी श्रासस्द देने की, श्रस्तित्व प्रसार करने की, जीवन यात्रा को सरस-संस्कुत बनाने की कक्ति हारा भी जन-हित का साधन नहीं करता 7? वस्तुस्थिति यह है कि प्रमतिचादी जनहित श्र सामाजिकता के बारे में कुछ कट्टर मा्यताएँ रखता है भ्ौर उनके सम्बन्ध में दूसरों के ब्रिधारों एवं खिस्तन-प्रयततों को घोर स्वेह की दृष्टि से देखता हे । उसके भ्रनुसार सासा- जिंक जीवन का मूल रूप है श्राथिक व्यवस्था, श्रौर शोषक-शोपितों का सम्बन्ध । साहित्य में प्रेस, ईर्ष्या, देष श्रादि का चिन्रण हो यह बुरी बात नही, बल्कि श्रलिवाय है; पर इस चित्रण को यह प्रतिफलित करना चाहिए कि इन सब विकारों के मूल में श्राथिक ध्यवस्था श्रौर वर्गों का सम्बन्ध हैं। साहित्य ही नहीं, विभिर्त शास्त्रों या विज्ञानों हारा भी प्रगतिवाद उक्त साक्सवावी सिद्धार्तों का समर्थन चाहता हे । फ्रायड के सिद्धान्तों को लक्ष्य करके डॉ० रामविलाया शर्मा कहते है- जो सनोविज्ञात समाज को छोड़कर व्यक्ति के आस्तर्सन का विश्लेषण करने का प्रयत्न करता है, बहू श्रपने विज्ञान को पहले से ही श्रवेज्ञामिक करार देता है ।” (बही, पृष्ठ ६९)




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