सामाजिक आदर्श की अवधारणा के सन्दर्भ में गांधी और मार्क्स के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन | Samajik Adarsh Ki Awadharana Ke Sandarbh Me Gandhi Aur Marks Ke Vicharon Ka Tulnatmak Addhayayn

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निरन्तर प्रकाश और गरमाहट देती रहती है ।”* डॉ० मुकर्जी मूल्यों के तीन आयाम माने है।- १- जैविक, २- सामाजिक तथा ३- आध्यात्मिक । जैविक मूल्य स्वास्थ्य, जीवन-निर्वाह, कुशलता, सुरक्षा आदि से संबंधित होते हैं। सामाजिक मूल्य सपत्त्ति, प्रस्थिति, प्रेम तथा न्याय सबधी होते है तथा आध्यात्मिक मूल्य सत्य सुदरता, सुसगति तथा पवित्रता विषयक होते है। आध्यात्मिक मूल्य साध्य मूल्य अथवा. लोकातीत मूल्य होते है और सामाजिक एव जैविक मूल्य साधन या बाहय मूल्य कहलाते है | डॉ० मुकर्जी ने सामाजिक सगठन के चारआधारभूत प्रारूपो के सदर्भ मे भी मूल्यों का एक श्रेणीकरण प्रस्तुत किया है ये प्रारूप है” भीड़, (८०9४), स्वार्थ-समिति (एढा851 85500181070 समाज (50०169) तथा सामूहिकता (८०ए0780917४) | भीड सबसे अस्थायी समूह है जोआदिम प्रवृत्तियो व संवेगो से भरपूर होनेके कारण विनाशकारी होता है। भीड मे आदर्श नियम या मूल्य शून्य होता है। स्वार्थ समिति एक या कुछ स्वार्थों की पूर्ति केलिए सगठित होती है, जैसे- श्रमिक संघ, शिक्षक संघ, कर्मचारी सघ आदि। समाज या समुदाय स्वार्थ-समूहों की अपेक्षा सामाजिक सगठन के अधिक विस्तृत, तार्किक व नैतिक आधारो को प्रस्तुत करता है। इसीलिए समाज या समुदाय मे इच्छाओ, संवेगो तथा स्वार्थों का अधिक एकीकरण एव व्यक्ति के साथ व्यक्ति का तथा स्वार्थ के साथ स्वार्थ का अधिक समायोजन देखने को मिलता है। समाज में समानता व न्याय के मूल्य अभिव्यक्त होते है । सामूहिकता (८०081) सामाजिकसंगठन का श्रेष्ठतम स्वरूप है जो कि सचेत अनुशासन, उच्च स्तरीय बुद्धि व विवेक का परिणाम होता है। इसमे सार्वमौम सद्भाव, अपने कर्त्तव्य -कर्मों के प्रति आन्तरिक निष्ठा तथा. स्वार्थभाव पर परार्थभाव की विजय देखने को मिलती है। स्वत प्रेम, सामाजिक उत्तरदायित्व, समानता तथा सहयोग सामूहिकता के आधारभूत मूल्य हैं । डॉ० मुकर्जी के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वे वर्तमान (पूँजीवादी) समाज को स्थिति से सतुष्ट नहीं है तथा मूल्यों की वास्तविक अभिव्यक्ति केलिए समाजवादी समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ लोग प्रतियोगिताकी जगह सहयोग के आधार पर जीवन यापन कर सकें | गाँधी और मार्क्स ने भी डॉ० मुकर्जी की भाँति सामूहिकता के जीवन परबल दिया है । दोनों ही प्रतियोगिता-मूलक समाज को मानवता के विकास मे बाधक मानते हैं। गँधीजी ने लिखा है- “ग्राम स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम्‌ जरूरतों के लिए अपने पडोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा, और फिर भी बहुतेरी दूसरी [9]




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