वैदिक धर्म 45 | Vaidik Dharm Varshh-45, Juun-1964

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Vaidik Dharm Varshh-45, Juun-1964 by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

Add Infomation AboutShripad Damodar Satwalekar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
मानव निर्माणकी वैदिक योजना [ केखक-- शी हुर्गाशंकर त्रिवेदी ] ज लोकप्रिपताके प्रयोजन मानव मात्रके दिसागमें यह भावना रहती है कि वह भतिमानुषीय प्रमावोंसे घिरा है, जो उसका बुरा भर भला दोनों ही करतेकी क्षमता रखते हैं । इसी क्रममें यह धारणा पुष्ट होती गई थी कि ये प्रभाव जीवनमें किसी मी समय हो सकते हैं और इनसे जीवनमें जीवन यापनकी दुदिधा हो सकही है । भरत: वे शमंगल जनक प्रभावोंके निवारण और हितकर प्रभावोंकी प्राप्तिक लिए सदा प्रयत्न रत रहा करते हैं। हिस्दू समाज भी इस भान्तरिक भयकी भावनासे मुक्त नहीं है । वरन्‌ अन्य जातीयोंकी अपेक्षा इनके अन्तमनमें यह जल इतनी गहराइंसे जमी हुई हे कि निकाले नहीं निकठ । इन -भनिष्ट निवारणीय प्रयत्नोंकि पीछे दे सदा यही चेष्टा करते रहते थे कि किसी प्रकार इनका निवारण हो, सलिससे समाज बिना किसी बहा विज्ञके भपना सर्वागीण विकास और अभितृद्धि करता रद सके । इन गुप्त किन्तु फिष्य दाक्सियोंसे वे सामयिक निर्देश और सहायता भी आस कर सकें । संस्कारप्रणाकीके जस्मसें भी मूक रूपसे यद्दी 'साकना 'विधमान थी, दाकांकि कालान्तरसें उसका स्वरूप बहुत कुछ नबढ़क गया है, भोर बदरता जा रददा है । -छोकप्रियताकि इस प्रसंगको हमें ध्यानमें रखकर दही अब संस्कारोंके विविध लोकप्रिय प्रयोजनोंपर एक दृष्टि फेंकना है, व्वतर' फ्रयोननीकि पीछे छिपे उन तत्वोंको खोजना है, जिनका मूछरूपसे कुछ अस्तित्व होता है, या उनके पीछे रहा है। बुरे प्रभावोंकी रोकथाम मानव जीवनसें अनेकानेक झुम अझुभ प्रभाव भाते जाते ही रहते हैं । इन्हीं दांच्छित प्रभावोंके शमनाथ हिन्दुओंनि अनेक साधनोंका सम्बल लिया था, उममें प्रथम स्थान साघ- नाका था । भूतों, फिशाचों, डाकिनियों, शाकिनियों आदिको बलि दी जाती थी, उनकी यधायोग्य पूजा भचेना भी की ज्ञाती थी । पग्रसेक यृहस्थ अपने सखी बच्चों एवं अन्य पारिवा- रिक परिजनोंको स्वस्थ एवं सानेद देखनेका इच्छुक रहता है, तद॒थ तरह तरहकी प्राथनाएं वह करता रहता था । शिझु पर यदि रोगवादही भूत भाक्रमण कर दिया करता था; तो शिझुका पिता चन्दना करता था--- * शिश्ुओपर आक्रमण करनेवाले कुकर, सुकुकुर, शिक्षुको मुक्त कर दो । हे सिसर, में तुम्हारे प्रति आदर प्रकट करता हूँ । ' >६ प्रायेनाके अतिरिक्त एक उपाय और भी था, जिससे सामास्यतया बदकावा कहा जाता था था सप्रयोजन उसे वूर ही रखा जाता रहा था । इस पक्षके उदाहरणके किए देखिए कि सुण्डन संस्कारके अवसरपर काटे हुए केशोंको गायके गोबरके पिण्डके साथ मिलाकर गोष्ठमें गाड दिया जात। 'था, अथवा नदीमें प्रवाहित कर दिया जाता था । जिससे कोई भूत, प्रेत अथवा पिशाच उसपर 'चामत्कारिक प्रयोग नहीं कर खके । + यह घारणा जनसाघारणकी बन गई थी । किन्तु जष इन दोनों कृत्योंके उपरान्त भी भनिष्कारी तत्व भपना प्रभाव बतलाते ही रहे तो एक तीसरा क्रांति- कारी चरण उठाया गया, जिसके अन्तर्गत अशुभ तत्वोंको स्पष्ट: दूर चढ़े जानेके छिए कहा जाता था, उनकी भत्सैना की जाती, उनपर प्रसक्ष रूपसे दैविक शक्तियोंका सहारा छेकर भाक्रमण किया जाता था । देखिए जातकर्म संस्कारके ्खमच. सिशुका पिता -कहता, है-- 2 पा. यू. सू. ११६२० इसी सूत्रकी ब्याख्या करते हुए गदाघर कहते हैं-- ततस्तुष् तुष्ट एन एन कुमार सुन । + ' लगुगुप्तमेतठ सकेश गोमसपिण्यं निभाव गोहे पर्वकसुदुकास्ते वा । ' पा. यू. सू. २१1२०




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now