वैदिक धर्म | Vaidik Dharma

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Vaidik Dharma  by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कि दिव्यस्व साव पैदा होता है । सबसे एक प्रकारका उस्साह रहता हैं | ' इला देवे मनुष्यों भरपि: ' । मानवताकि विकासका दूसरा! साधन * सम्यवा * सर- स्वती दे । यदद अतीत वसंमान और भविष्य की शेखर दैं। वर्तमान मानव जातिका हृदय शर्तीतमें गुप्त है, भौर भविष्यकी शोर निद्दार रददा है। कहीं भर भी मंगता नहीं । एक दूसरे के सुखदुःखर्में अनुभूति, इत्तम लोकसंग्रद्दी शाचार विचार, विकासकारी भाद्ारविहार , जनक्षेत्रके निमित्त रदन सदन, मनके शोधक दाशेनिक भाव ये सब ऐसी एकसूत्रता मानव जातिमें पैदा करते हैं जो संग नहीं होती । शिक्षणमें इसकी आवश्यकता है + इस लबका जीवनसे सीधा सम्भ्न्ध है। 'सरस्वती सारस्वतोभिर- वह्धि । ' शिक्षामें यदि इस प्रकारके विषयों का समावेश दो तो ' सारस्वत जन ' पेदा हों । इसका भथे है ' बुद्धिमान ज्ञन ' मेन झॉफ रिफाइनटेस्ट, कल्यई मनुष्य । एक मनुष्य के “ सुसस्कृत ' दोनेका भभिप्राय क्या है, यदी कि बह * नागा पीछा * देखता है ' इघर उधर ' की. जानता हे; जिसने भपने शरीर भोर मनको भच्छी तरहसे साफ कर रक्‍खा दो, जिसे ' पूर्व ' झौर ' नूतन ' ( भाने वाके ) दोनों प्रकारके ऋषियों द्वार! बताये ज्ञानपर डदारतापूर्वक विचार करनेकी क्षमता हो । पूर्वजों द्वारा सम्पादित संचित ज्ञानस्रोतमेंसे हमें बढुत कुछ केना है. श्र भागेके किये देना है । एक दीप स्तये जता है, बुझनेसे पू्व दूसरेको जरा देता है । इस प्रकार जानकी ' भखण्डसपोती ' * झमरज्योति ! दुनियांमें जली रहती दे । यदि मजुष्य लपने प्रितरोंके सब प्रकारके अनु- भवॉोंसे कगा उठाकर जनमें लपने जोड़कर आगे अानिवाली स़न्ततिकों सोंप दे तो सवेत्र शान्ति का जावे। यद्द तभी दो सकता है जब कि सबको उनके पूर्वजोंके कृत्योंका इतिहास तथा उनके पूवंजोंके चिन्तनका संग्रदरूप दशन तथा सदियों से भाते हुए आाचारविचार एवं लाहार विहार भच्छे बुरेका शान दिया जावे । इसीका नाम ' सारस्वत ” प्रचार है । च् मानवताके विकासका तीसरा साघन है “ भूमिका ज्ञान ” । भाज इजारों विद्याकय हैं, वां पढ़नव्राछोंको उस स्थान विशेषका न तो खूगोछ पता होता है, न भागो- डे वैदिक दिक्षा विधान (रै२30 छिक परिवत॑नोंका, न भूमिके उपयोगका | खेती वारीका ज्ञान नहीं, उत्पन्न पदार्थाकि गुणदोबॉकि पता नहीं । परि- णामतः इन जोवनके किये लावइयक ब्रातोंके छिये उन्हें दूसरों पर माश्रित होना पड़ता हूँ । * भश्न वख निवास * की समस्याका दर ' भूमि ' के सम्भार ज्ञान द्वारा तथा भूमिगें उत्पन्न पदार्थोके सम्भार उत्पादन, वितरण एवं डपयोग द्वारा दो सऊता है । प्रत्यक मनुष्यको इस प्रकार- के क्रियारमसक ज्ञानके देनेकी सावइयऊता है । इस प्रकार यदि शिक्षण प्रणाछीसें “ भाषा सभ्यता तथा भूमि ' विषयक फ्रियात्सक शानकों प्रचछित कर दिया जावे तो समस्त विश्व्म एकसूचता भा सकती है । एक उदादरण देकर इस बातकों भजिक साफ करना चाहता हूँ । मारतदशर्में ' वेदिकेशिक्षादिधान ' के भनुमार * भारतीय मापा, भारतीयसभ्यता एवं भारत भूमि ' सम्बन्धी शान सुख्य हे । इसी प्रकार मिन्न २ देशोसिं किया ज्ञाना चाहिये । परन्तु क्योंकि ' भाषा खभ्यता भूमि ' इन्हें देश व जातिविशेषक्े बन्घनमें बान्घकर संकुचित नहीं किया ज्ञा सकता इसलिये कुछ समय बाद ' भाषा ! न झन्य- भाषायें; सभ्यता ० लस्पदेंशोंके दविदोस, द्शनादिका दिक्षण तथा भूमि - विश्वमूगोक पढ़ाये जाने चाहिये । तीसरी स्टेजमें * भाषा विज्ञानके सामान्य नियम, व्याकरण, अलंकार शास्ादि; मानवसभ्यता एवं मानव ज्ञातिका इतिदास तथा समस्त भूमि एवं उसके ऊपर उत्पन्न पदार्थोका क्रियाव्मक ज्ञान कराया जाना चाहिये । यद्द लर्दंधा स्वाभाविक दोनिसे बैज्ञानिक है । सय पूछा जावे और यदि सब दी समझा जावे तो * भाषा सम्यता भूमि को जातीय नामरूपरंगमें रंगना सबंध अनुचित हैं । पर यदि उपरोक्त विश्ञाछ इष्टि बिन्दुमें केन्द्रित करें तो बुरा नहीं । वेदन इसी- लिये जनरकरम्सेमें यूनिववंछो सत्र मूउतरवोंका वर्णन किया है । भव प्रइन यह है कि इसको जारी किया केसे जावे | वैदिक भादसंके भजुलार ” मातदेवों सच पितृदेवो भव आचायेदेवो भव '' होना अद्मचारोकों छिखा दे । एक बाकक मातासे, भाषा मचिक सम्प्रता भूमिका जान




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