भक्ति काव्य में प्रेमाभिव्यक्ति के विविध रूपों का अध्ययन | Bhakti Kavya Men Premabhivyakti Ke Vividh Rupon Ka Adhyayan

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Bhakti Kavya Men Premabhivyakti Ke Vividh Rupon Ka Adhyayan by गीता देवी - Geeta Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रामानन्द :- वैष्णव साहित्य एवं भक्ति साहित्य के इतिहास में स्वामी रामानन्द का स्थान अनुपम है। इनके जीवन के संबंध में बहुत कम ही प्रमाणिक सामग्री उपलब्ध है। रामानन्द सम्प्रदाय के अनुसार स्वामी रामानन्द का जन्म सवंत्‌ 1356 ई0 और मृत्यु 1467 में हुई' | वे एक सौ ग्यारह साल तक जीवित रहे। कई विद्वान रामानन्द को दक्षिणात्य समझते थे। पर अब यह प्राय: निश्चित हो गया है कि उनका आविर्भाव प्रयाग में हुआ था।” रामानन्द के पिता का नाम अगस्त्य संहिता के आधार पर पुण्य सदन और माता का नाम सुशीला देवी था। रामानुज सम्प्रदाय से सम्बद्ध होते हुए भी. रामानन्द ने अपना दार्शनिक चिंतन और उपासना पद्धति अलग ही रखी। वे रामानुज की अपेक्षा अधिक उदार चेता और अधिक क्रांतिदर्शी थे। हिन्दी भक्ति काव्य की दो सशक्त धाराएं उनके उदात्त व्यक्तित्व के उत्स से निःसृत हैं। एक तरफ वे कबीर जैसे उदग्र चित्तवृत्ति वाले क्रांतिकारी कलाकार के प्रेरणास्रोत रहे हैं तो दूसरी ओर सुसंयत एवं सुमर्यादित सामाजिक व्यवस्था के प्रवक्ता स्मार्त तुलसीदास के मानस-मराल। रामानन्द ने उत्तर भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों में अपने केन्द्र स्थापित करके राम भक्ति का . सम्यक प्रचार किया। जात-पाँत, ऊँच-नीच आदि भेदभाव की परवाह किये बिना उन्होंने सबको प्रभुभक्ति के मंदिर में प्रवेश दिया। उनके शिष्यों में सभी वर्णों के लोग प्राप्त होते है। “जाति-पाँति पूछे नहीं कोई । हरि को भजै, सो हरि का कोई | [यह उक्ति रामानन्द द्वारा प्रचलित की हुई मानी जाती है। रामानन्द के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण ही भक्ति उत्तर भारत की सम्पूर्ण जनता में सहज रुप में प्रवेश कर पाई। संत मत के साधकों के लिए भी राम स्वीकार्य हुए, इसलिए रामानन्द ही रामोपासना के गुरु कहे जा सकते हैं। “भक्ति द्राविड़ उपजी, लाये. रामानन्द”वाली उक्ति निर्र्धक नहीं है। डा0 बदरीनारायण श्रीवास्तव के अनुसार-रामानंद की कृतियाँ हैं-श्री रामार्चन पद्धति, गीताभाष्य, उपनिषदभाष्य, आनन्दभाष्य, सिद्धान्त पटल, रामरक्षास्त्रोत, योगचिंतामणि वेदान्तविचार 1. श्री भक्तमाल (वृन्दावन संस्करण), फू-257-260 2. परशुराम चतुर्वदी-उत्तर भारत की सन्त परम्परा, पु0-222 पर




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