नीरजा | Neeraja

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Neeraja by बंसीलाल यादव - Bansilal Yadav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र अस्थिर हो उठा । क्रोध-कम्पित स्वर में बोला--'नीरजा-- तुम जाओ यहाँ से । तुम यहाँ कभी न आया करो । तुम” और उसका स्वर अवरुद्ध हो चला । नीरजा ने अमिताभ को गौर से देखा और फिर मौत, मूक, सिर डाले कमरे से अह्िस्ता-अहिस्ता चली गई । उसके जाते ही अमिताभ ने पास पड़े स्ट्ूल पर सिर टेक दिया और बालों को नोंच डाला । रे जब टाइम-पीस की सुई खिसककर साढ़े सात पर आ गई तो अमिताभ ने सामने रखी चाय को ढकेल दिया । जान लिया नीरजा अब नहीं ायेगी, कि नीरजा सुबह की चाय शायद आज से उसके यहाँ नहीं लेगी, कि नीरजा को कुछ बुरा-सा लग गया है, कि नीरजा बहुत ही मानिनी है ! और बिना नीरजा के चाय पी लेना अमिताभ को कुछ जँचता नहीं, चाय गले से नीचे उतरती ही नहीं । विचित्र आदत हो गई हैं। वह भी मानता है कि बुरी श्रादत है यह--दिमाग से श्रघिक दिल को, भावना को स्थान दे बंठना ! पर आदत की अच्छाई व बुराई को गौण समभकर, वह वही करता है, जो मानता है । जो मानता है, वह्दी करता चला जाता है-निद्न्द, अनवरत ! सामान्य हुम्रा कि सुन्दर है ।' एक सिगरेट सुलगा, वह नीरजा की वृद्धा माँ के उस अधूरे पड़े चित्र के सम्मुख जाकर बैठा ही था कि नीरजा की ब्रृद्धा माँ आ गईं । कहने लगीं--अब तु ही बता श्रमिताभ, मुझे जलाने में भला इस 'लीरजा को कौन खास आनन्द मिलता है ?'




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