अमृत - सन्तान | Amrit Santaan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
गोपीनाथ महांती - Gopinath Mahanti,
युगजीत नवलपुरी - Yugajeet Navalpuri,
हरेकृष्ण महताब - Harekrishn Mahatab
युगजीत नवलपुरी - Yugajeet Navalpuri,
हरेकृष्ण महताब - Harekrishn Mahatab
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
56 MB
कुल पष्ठ :
816
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
गोपीनाथ महांती - Gopinath Mahanti
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युगजीत नवलपुरी - Yugajeet Navalpuri
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हरेकृष्ण महताब - Harekrishn Mahatab
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अमृत-सन्तान रैरे
हवा झिर-झिर शिर-झिर बह रही हे । लगता है, जैसे अलगोजे की' अन्तिम
तान की सर्वान्तिम स्वर-लहरी सचमुच ही वहीं घूम-घूम कर चकराने लगी
हो, गू जने लगी हो, चकोह की तरह भेवराने लगी हो । गाँव सुनसान है ।
गाँव के लोग पूजा में व्यस्त है ।
कुछ समय यों ही बीत गया । सॉँवता की कोई सुगबुगी नहीं मिली ।
मक्खियाँ घेर आई । मालिक की देह के पास बैठा दसरू कृत्ता दरमू देवता
की ओर मु ह करके विकल होकर चीख उठा--वौ. .वौ. . वौ. . .वाउ--!
दरमू ने पहाड़ के उस पार मुह छिपा लिया। इस पार से उस पार तक
छिपती-छिपाती कटती-कटाती छाया-प्रकाश की तिलचावली लकीरें फैक
गई। ढोर-डंगर लौट आए । धूल के बादल रंग-अबीर की तरह उड़ने लगे।
झरने के किनारे का धड़-घड-धड़ाक् ढू-ढू-ढाँ-ढों कोलाहल समाप्त हो गया ।
बड़गद के छतनार-झंखाड़ पेड़ तले चूहे का लोहू और पकाई दारू ढालकर,
वेदी के मंडय के ऊपर मुरगी के अंडे डाल कर, हलदिया और लाल बिंदकियों
से चित्रित लकड़ी के छोटे-छोटे खाँड़ों और बरछों को खिलौने की बाघमूर्ति
के आगे सजा कर, और सभी मंतर-तंतर तथा मंगल-कामनाएँ शेष करके,
गाँव के लोग गाँव की और चढ़ने छगे । पूजा शेष हो गई है, अब छक-छक
कर दारू चढ़ाने और थक-थक कर मौज मनाने की बारी है।
प्रकाश की रेखा छोटी पड़ गई। छाँह की रेखा बढ़ गई। दसखू
बैठा-बैठा रोता रहा। उसकी कुक्रिपा आँखों के कोनों से आँसुओं की' बड़ी-
बड़ी बू दें टपाटप-टपाटप टपकती रहीं ।
गुमसुम सुनसान गाँव में यकायक चहल-पहल बढ़ गई। आनंद का
हर्षरोर गूंज उठा। दारू के दौरों की अगवानी हुई । दोनों पाँतों के घरों से
दारू ला-ला कर खुले गलियारे में रखी गई । अपने-अपने हाथों में मिट्टी
के टूटे बरतनों के खप्पर, कह की तुंबियाँ, बोतलें, टिनपाट, आदि ले-लेकर
गाँव.के सारे लोग दारू के मटकों को घेर कर बैठ गए । गीधों के खँखासने
की तरह बूड़ों की खड़खड़ाती गंभीर बोली दारू के लोभ में और भी बेकल
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