अमृत - सन्तान | Amrit Santaan

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Amrit Santaan by गोपीनाथ महान्ती- Gopinath Mahantiयुगजीत नवलपुरी - Yugajeet Navalpuriहरेकृष्ण महताब - Harekrishn Mahatab

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गोपीनाथ महांती - Gopinath Mahanti

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युगजीत नवलपुरी - Yugajeet Navalpuri

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हरेकृष्ण महताब - Harekrishn Mahatab

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अमृत-सन्तान रैरे हवा झिर-झिर शिर-झिर बह रही हे । लगता है, जैसे अलगोजे की' अन्तिम तान की सर्वान्तिम स्वर-लहरी सचमुच ही वहीं घूम-घूम कर चकराने लगी हो, गू जने लगी हो, चकोह की तरह भेवराने लगी हो । गाँव सुनसान है । गाँव के लोग पूजा में व्यस्त है । कुछ समय यों ही बीत गया । सॉँवता की कोई सुगबुगी नहीं मिली । मक्खियाँ घेर आई । मालिक की देह के पास बैठा दसरू कृत्ता दरमू देवता की ओर मु ह करके विकल होकर चीख उठा--वौ. .वौ. . वौ. . .वाउ--! दरमू ने पहाड़ के उस पार मुह छिपा लिया। इस पार से उस पार तक छिपती-छिपाती कटती-कटाती छाया-प्रकाश की तिलचावली लकीरें फैक गई। ढोर-डंगर लौट आए । धूल के बादल रंग-अबीर की तरह उड़ने लगे। झरने के किनारे का धड़-घड-धड़ाक्‌ ढू-ढू-ढाँ-ढों कोलाहल समाप्त हो गया । बड़गद के छतनार-झंखाड़ पेड़ तले चूहे का लोहू और पकाई दारू ढालकर, वेदी के मंडय के ऊपर मुरगी के अंडे डाल कर, हलदिया और लाल बिंदकियों से चित्रित लकड़ी के छोटे-छोटे खाँड़ों और बरछों को खिलौने की बाघमूर्ति के आगे सजा कर, और सभी मंतर-तंतर तथा मंगल-कामनाएँ शेष करके, गाँव के लोग गाँव की और चढ़ने छगे । पूजा शेष हो गई है, अब छक-छक कर दारू चढ़ाने और थक-थक कर मौज मनाने की बारी है। प्रकाश की रेखा छोटी पड़ गई। छाँह की रेखा बढ़ गई। दसखू बैठा-बैठा रोता रहा। उसकी कुक्रिपा आँखों के कोनों से आँसुओं की' बड़ी- बड़ी बू दें टपाटप-टपाटप टपकती रहीं । गुमसुम सुनसान गाँव में यकायक चहल-पहल बढ़ गई। आनंद का हर्षरोर गूंज उठा। दारू के दौरों की अगवानी हुई । दोनों पाँतों के घरों से दारू ला-ला कर खुले गलियारे में रखी गई । अपने-अपने हाथों में मिट्टी के टूटे बरतनों के खप्पर, कह की तुंबियाँ, बोतलें, टिनपाट, आदि ले-लेकर गाँव.के सारे लोग दारू के मटकों को घेर कर बैठ गए । गीधों के खँखासने की तरह बूड़ों की खड़खड़ाती गंभीर बोली दारू के लोभ में और भी बेकल




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