सौवर्ण | Sauvarna

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Sauvarna by श्री सुमित्रानंदन पन्त - Sri Sumitranandan Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कि. ९ सावण दाने: घने: उठ, ऊध्वं भाल पर धारण कर निज रवि डाधि तारा जटित मुकुट स्मित आत्मतेज का! सामंतों, सम्राटां, धनिकोां के युग में बहु विकसित होता रहा गुद्य अंतःम्थ कट यह, मम गुंजरित इसकी प्राणों की द्ोणी में जीवन वभव रहा. झुलता नव शोभा में ! द्‌्व नया सांस्कृतिक व्ृत्त उदित हो रहा श्षितिज में मानव जीवन मन का नव रूपांतर करने, नव संगति में संजो परिस्थितियों की भू को, नव संतुलन भर बहिरंतर के यथाथ में ! नवमी का मणि कद, पृ्ण चेतन्य सुधा से, स्वप्न द्वित राका. बरसाएगा भविप्य की, दव दृष्टि अतिक्रम कर चुकी मनुज के मन को, सक्रिय फिर से दिव्य चतना, नव्य संचरण गुद्दा बद्ध ज्योति्निंझर सा युग-सचप्ट अब, जन भू को मज्जित करने जीवन शोभा में ! देखो, वह, स्वदूत उतरते स्वप्न पंख स्मित, आओ, हम विश्राम करें '्यानावस्थित हो !” [ देवों का अंतर्घान होना : स्वदूतों का प्रवेश _]




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