विज्ञान | Vigyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
88 MB
कुल पष्ठ :
448
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मैक्सल्यूसर ने रंगों के आधार पर व्यक्तित्व विश्लेषण की एक
पद्धति विकसित की है जिसमें कुल आठ रंगों में से व्यक्ति को . दी कि
._ की पहुँच मस्तिष्क की उथली परतों द्वारा लिये गये निर्णयों
अपनी पसंदगी-नापसंदगी के अनुसार रंग चुनने होते हैं। ये
आठ रंग हैं-जामुनी, नीला, हरा, लाल, पीला, कत्थई, भूरा
और काला, डॉ. ल्यूसर के मतानुसार नीला रंग शान्त, सौम्य,
सतोगुणी व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता हैं। हरा रंग
सक्रियता काम के प्रति गहरी आसक्ति और गतिशीलता को
प्रकट करता है । लाल रंग स्फूर्ति और आवेश को दर्शाता है,
ऐसे व्यक्ति उत्साही तो होते ही हैं किन्तु बहुत जल्दी
आवेशग्रस्त हो जाते हैं। पीला रंग आंतरिक उल्लास,
हलकी-फुलकी मस्ती भरी जिंदगी का प्रतिनिधि है। ऐसे
व्यक्ति कार्य को मनोयोग से करने वाले, व्यर्थ की चिंता न
करने वाले और अलमस्त प्रकृति के होते हैं ।
कत्थई रंग इंद्रियलिप्सा, भोगों में रुचि तथा असंयम
का प्रतीक है, जबकि जामुनी रंग व्यक्ति की मानसिक
अपरिपक्वता, कच्चेपन और बचकानेपन की ओर संकेत
करता है | भूरा रंग तटस्थता और निरपेक्ष भाव का परिचय
देता है तथा काले रंग को पसंद करने वाले अधिकांश लोग
नकारात्मक चिंतन के होते हैं। जैसे ही उन्हें काले रंग की
वस्तुओं से दूर किया जाता है वे अपनी हीनता, छोटेपन,
विरोध की वृत्ति को छोड़कर आशावादी और सकारात्मक
सृजन का चिंतन करने लगते हैं ।
डॉ० ल्यूसर सबसे पहले सामान्य व्यक्तियों या मनो-
रोगियों से अपनी पसंद के रंग चुनने को कहते हैं । पहले चुने
गये रंग से उसकी संवेदनशीलता का परिचय मिलता है।
उसके द्वारा चुना गया दूसरा सबसे प्रिय रंग उसकी पसंद को.
दिखाता है। इसी क्रम में रखे गये रंगों का चयन क्रमशः
उसकी मनोपृत्तियों को दर्शाता है|
पश्चिम में रंग विज्ञान के मनोवैज्ञानिक पक्ष के प्रति
रुचि तो पैदा हुई है, पर वह वास्तव में मनुष्य शरीर के
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आंतरिक स्रावों पर आधारित है । कार्ल गुस्ताव जुंग, एडलर
और मैस्लो जैसे प्रख्यात मनोवैज्ञानिकों ने जाँच की इस पद्धति
पर आधारित बतायी है। खासकर कार्ल युंग ने पंच तत्त्वों
के प्रतीकों-सूर्य और अग्नि की उपासना को वर्ण उपासना पर
आधारित बताया है। मनुष्य मूलतः श्रेष्ठ वृत्तियों “वाला है
और वह उन्हीं को पोषण देने वाले तरीकों को बाहरी जगत
में दूँढ़ता है। आज की आधुनिक तड़क-भड़क में श्रेष्ठता को
बढ़ावा देने वाले पक्ष तो खो चुके हैं और दृष्टि के प्रदूषण को
पैदा करने वाले चटकीले उत्तेजक रंग बड़ी मात्रा में पाये जाते
हैं। इन्हीं के कारण हमारे चिंतन को पतन के अंधियारे निगले
जा रहे हैं। लगातार इस नकारात्मक पोषण ने मानवता को
दूषित ही किया है।
रंगों के इस प्रदूषित पर्यावरण ने आज पश्चिम में लोगों
को कृत्रिम और आधारहीन जीवन पद्धति अपनाने पर मज़बूर
कर रखा है। लोग चंचल वृत्तियों, मानसिक अस्थिरता,
डिप्रेशन, स्रायुओं की कमजोरी, उत्तेजित विचारधारा और
तनावों से पीड़ित हो रहे हैं। इस मनोभूमि को पाकर वे पुनः
दूषित प्रवृत्ति के रंगों का चयन करते हैं जिसका प्रभाव
अमर्यादित और वहशी यवृत्तियों के रूप में उभरता है|
हमारे अपने जीवन में भी इस अंतहीन उत्तेजना का
दौर प्रवेश पा चुका है । इसे यहीं रोक देना ही बुद्धिमानी है ।
तड़क-भड़क चकाचौंध करते रंगों का यह सैलाब प्रौढ़ता पाते
मानसिक प्रदूषण का ही प्रतीक है । हीन मानसिक वृत्तियाँ
अधिकतर इनके प्रकाश में अपनी पहचान को ढूँढ़ती हैं । रंगों
की शालीनता, सौम्यता और गंभीरता से फिर दुनिया सजायें,
यह ज़रूरी भी है और अनिवार्य भी । विशेषकर नयी पीढ़ी
को एक शांत, प्रेमपूर्ण समाज की धरोहर देना तो आज की
सबसे बड़ी आवश्यकता ही कही जायेगी |
जनवरी 2000
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