अनासक्तियोग और गीताबोध | Anasaktiyog Aur Gitabodh
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
348
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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छानेक शब्दों में,'. पुनरुक्ति का दोष स्वीकार करके:
भी, 'मच्छी तरदद स्थापित किया हे । . न
' वह झट्चितीय पाय हे कमेफलत्याग। .
इस मध्यविन्दु के चारों ओोर गीता की सारी-
सजावट की गई है । भक्ति, ज्ञान इत्यादि उसके
्मासनपास त्तारामएडल! को भांति सज गये हैं । जद्दां
देह है वहां कर्म तो है दी । उससे कोई मुक्त नदीं
है। तथापि शरीर को प्रसु-मंदिर बताकर उसके
द्वारा मुक्ति प्राप्त होती हैं, यह सब धर्मों ने अतिपादन
किया है। परन्तु कर्ममात्र में कुछ दोष तो ? ही
मुक्ति तो निर्दोष की ही होती हे । तथ कर्सचन्धन से
अथोत, दोपस्पशे से कैसे छुटकारा हो ? इसका
लवाव गीता ने सिश्वयात्मक 'शब्दों में दिया हे--
“पनिप्काम कम से, यज्ञाथ कमे करके, कमेफशा का
त्याग करके, सब कर्सो को कृष्णापंण करके अर्थात
मन, वचन और काया को ईश्वर सें होम करके ।” -
पर निष्कामता, कर्मफलत्याग कहने-भर से दी
नहीं दो जाती । यद्द फेवल बुद्धि का प्रयोग नददीं हे।
यदद हदयमन्थन से दी उत्पन्न होता हे । यह त्याग-
शक्ति पेदा करने के लिए ज्ञान चाहिए । एक तरह
का ज्ञान तो वहुतेरे. पशिडत पाते हैं । वेदादि उन्हें
करठ दोते हैं। परन्दु उनमें से 'धिकांश भोगदिमें लीन
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