जैन धर्मामृत | Jain Dharmamrit

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Jain Dharmamrit by पंडित हीरालाल जैन - Pandit Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्छ जेनधर्मासत इनके अतिरिक्त नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्तिसे पता चलता है कि उन्होंने १ युक्तिचिस्तामणिस्तब, २ महेन्द्रमातलिसंजल्प, रे पण्णवतिप्रकरण और '४ स्याद्वादोपनिषत्‌ नामक चार प्रन्थोंकी और भी रचना की है । हमारा दुर्भाग्य है कि चारों ही ग्रन्थ अभीतक प्राप्त नहीं हुए ? यशस्तिलकचम्पूरमें महाराज यद्योधरके चरित्रका चित्रण आठ आइवासों- में किया गया हैं । जिनमें-से पहलेमें कथावतार, दूसरेमें यशोघधरकों राज्य- तिलक, तीसरेमें राज्यलक्ष्मी विनोद, चौथेमें महारानी अमृतमतीका दुबिलास, पाँचवेंमें भव-श्रमण, छठेमें अपवर्ग-मार्ग, सातवेंमें सम्यग्ज्ञान और देशचारित्रके पाँच अणुब्रत और तीन गुणब्रत, तथा आठवेंमें चार शिक्षाब्रत और उपासक-सम्बन्धी कुछ विशिष्ट कर्तव्योंका वर्णन किया गया हैं । ग्रन्थकारने अन्तिम आदवासमें श्रावकके आचारका एक विशिष्ट ही ढंगसे वर्णन किया है, जो कि उसके पूर्ववर्तती ग्रन्थोंमें दुष्टिगोचर नहीं होता । यह ग्रन्थ दाक सं० ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) की चैतसुदो १३ को रचा गया हैं, ऐसा स्वयं ग्रन्थकारने इस ग्रत्थको अन्तिम प्रदस्तिमें लिखा है, अतएव उनका समग्र विक्रमकी दशवीं दाताब्दीका अन्तिम चरण और ग्यारहवीं शताब्दीका प्रथम चरण सिद्ध होता है । जेनधर्मामृतके दूसरे, चौथे और पाँचवे अध्यायमें यशस्तिछकचम्पूके पाँचवें, छठे और सातवें आइवासके पंतालीस इलोकॉंका संग्रह किया गया है । हा इस ग्रन्थके प्रथम खण्डका प्रकाशन निर्णयसागर प्रेस बम्बईकी काव्य- मालासे सन्‌ १९०१ में और द्वितीय खण्डका प्रकाशन सन्‌ १९०३ में हुआ है । ७ असृतचन्द्र और तत्त्वाथसार एवं पुरुपाथसिद्धथ पाय दि० ओर दवे० सम्प्रदायमें समानरूपसे सानें जानेवाले तत्तवार्थसुत्रको




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