ऋग्वेद भाष्यम् | Rigved Bhashyam

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Rigved Bhashyam  by मद्दयानन्द सरस्वती - Maddayanand Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कहमिदः यं० ६ 1 झे १ । सब ऐ | ण्द३्७ कमनीवाद पदारथान (शारने) पावक इव विदधयाप्रकाहित ( बहता) महता (रोचनेन) प्रकाशन ॥ ७.४ न्ून्वय-हे गे विदन्‌ ! यया सुध्यः सुम्नायवों देवयन्तों वर्ष ते नब्यमग्निमीमद्दे तथा सवा प्रामुवास । हे शगने ! यथा सूर्यो बहता रोचनेन दाथ्ानों दिवो विज्ञोडनयस्तथा त्वसेतालय ॥ै ७ ॥ मावाधे:-अत्र वाचकलु०-पे विद्दद्ददरिनिमनुचरन्ति ते रतका्य्यी जायन्ते ॥ ७ ॥ पदार्थ :-हे ( भग्ने ) अग्नि के सडण ब्चमान विद तेसे ( सुभ्यः ) न्सयदुद्धिपुक ( सुम्नायव' ) अपने सुख की इच्छा करने वाले. ( देवयनतः )) कामना करने दुए ( व्यय ) हम लोग (तमर) उस ( नथ्यम ) नवीन पदार्था में दुए अधि को ( परे ) व्याप्त होतें देखे (.त्वा ) आप को प्राप्त होने ओर हे / खग्ने ? मग्नि के सददा विद्या से प्रकाशित जेसे सूर्य ( बहता ) बड़े ( रोच- नेन ? प्रकाश से (दीद्यान: ) प्रकाशित होता हुआ (दिवः) कामना करनेके योग्य पदार्थों को ( दिराः ) प्रज्ञासों को ( अनप: ) पहुंचातादे वेसे ( स्वयं ? साप इनको प्राप्त कराइये 3 भावा थे।--स मेत्र में दाचकलु०-जो विदात लगों के सढश सार्नि का अनुखरणा करते हें बे कतकाप्य होने में | ७ | पनमेनुष्याः कि प्राप्नुघुरित्याह ॥ फिर मनुष्य किस को प्रान्न होतें इस दिवय को ० ॥ विज्ञां कर्विं विइपतिं दार््वतीनां नितोर्शनं ठ- परम चंपेतीनास । प्रेतीप्णिमिघयंन्त॑ पावकं रा- जन्तमन्लि यंजतं रंयी शाम ॥ ८ ॥ , प श् ।




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