ब्रज माधुरीसार की टीका | Braj Madurisar Ka Teeka

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Braj Madurisar Ka Teeka by सदानंद मिश्र - Sadanand Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(झा) 'झथोद श्रजमण्डल के एक थ्रोर की दद वर स्थान है, दूसरी शोर सोन है और तीसरी योर सूरसेन का गाँव है। मधुरा इसका केन्द्र स्थान है । आाज श्रजमण्डल में सम्पूर्ण मथुरा तथा श्ागरा, थलीगढ़, शुड़गावें श्रीर भरतपुर का आंशिक भाग सम्मिलित हैं। ब्रज की वोली भी केवल अपने क्षेत्र में ही सीमित नहीं रही प्र्युत वह न्रजपतिं श्रीकृष्ण भग- वान का सदयोग पाकर काव्य-भाषा वन गयी और धीरे-धीरे देश के कोने में व्याप्त हो गयी | ज्यो-ब्यो कृष्ण भक्ति का प्रचार होता गया त्यो-त्यों देश के कोने-कोने से कृष्ण भक्त न्रज्न की पाचन रल का दुर्शन करते के लिए झाने लगे। ाज तो ऐसी स्थिति है कि सावन के महीने में लाखो यात्री प्रति :वर्प घ्रज में पहुँच जाते हैं घर घ्रज की रज, ज्रज् के वन, पहाड़, नदी, पशु, पत्ती श्रौर पुरुप- स्री सभी को प्रेम भाव से देखकर गदूगदू दो जाते हैं । ब्रज का दर्य देखकर उसके नेत्र तृप्त नद्दी होते झ्पिततु उनकी प्यापत प्रति चंण॒ बढ़ती जाती है । उन्हे झाज भी ऐसा लगता है मानो श्रीकृष्ण गायें चरा रहे हैं, ग्वाल वालो '्ौर गोपियों के साथ क्रौड़ा कर रहे हैं । जब वे ्रज के किसी बच्चे के मुँह से 'मैया- मैया? की पुकार सुन लेते हैं हो उन्हें ऐसा प्रतीत होता है मानों वे बाल-झष्ण के मधुर बचनों को सुन रहे हो । सावन के महीने के जज की प्रकृति अपना सुन्दर शगार करती है न्रज का यह श्रपूर्व दृश्य पंडित सत्यनाराथयण कवबिरल्ल के शब्दों में सुनिये-- पावन सावन सा सई- उनई बन पाँती। मुनिमन भाई छुई/ रसमई मंजुल काँती ॥ मनवीर न ्ट २. श्ष्टछप श्रीर वस्लभ सम्मरदाय--डा० दौनदयाह्ठ गुर हिल रे)




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