जैन तत्त्व समीक्षा का समाधान | Jain Tatva Samiksha Ka Samadhan

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Jain Tatva Samiksha Ka Samadhan by फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री - Phulchandra Siddhantshastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ (23) “उपयुक्त दोनों बातों में से प्रथम वात के सम्बन्ध में विचार करने के उद्देश्य से ही खानिया तत्वचर्चा के अवसर पर दोनों पक्षों की सहमतिपू्वंक उपयुक्त प्रथम प्रश्न उपस्थित किया गया था. । इतना ही नहीं, खानिया तत्वचर्चा के सभी १७ प्रश्न उभयपक्ष की सहमतिपूर्वक ही चर्चा के लिए प्रस्तुत किये गये थे ।”” (स. पृ. 6) (24) “पूर्व में वतलाया जा चुका है कि प्रकृत प्रश्न को प्रस्तुत करने में पूवपक्ष का श्राशय इस वात को निर्णीत करने का था कि द्रव्यकर्म का उदय संसारी झात्मा के विकारभाव श्रौर चतुर्गति- अमरण में निमित्तरूप से श्रर्थादु सहायक होने रूप से कार्यकारी होता है या वह वहाँ पर सर्वेथा श्रकिचित्कर ही बना रहता है व संसारी श्रात्मा द्रव्यक्म के उदय का सहयोग प्राप्त किये विना ही विकारभाव तथा चतुगंति परिभ्रमण करता' रहता है । उत्तरपक्ष पूर्वपक्ष के इस भ्राशय को समभकता भी था, अन्यथा वह श्रपने तृतीय दौर के भ्रनुच्छेद में पूर्वपक्ष के प्रति यह नहीं लिखता कि “एक श्रोर तो वह द्रव्यकमें के उदय को निमित्तरूप से स्वीकार करता है” परन्तु जानते हुए भी उसने प्रथम दौर में प्रश्न का उत्तर न देकर उससे भिन्न नयविषयत्ता और कर्त्ताकर्म सम्बन्ध की श्रप्रासंगिक श्रौर अनावश्यक चर्चा को प्रारम्भ कर दिया ।” (स. पृ. 7) (25) “बयोंकि पूर्वपक्ष जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, विकार की कारणभूत घाह्य सामग्री को उत्तरपक्ष के समान अंयथार्थ कारण ही मानता है ।” (स पु. 7) (26) “'भ्रागम वाक्य का यह अभिप्राय नहीं है कि दो द्रव्यों की मिलकर एक विभावपरि- ' रत होती है, अपितु उसका अभिप्राय यही है कि एक वस्तु की विकारी परिणति दूसरी श्रनुकूल चस्तु का सहयोग मिलने पर ही होती है।” (स. पृ. 8) (27) *पुर्वपक्ष को मात्य निमित्त की कार्यकारिता ही सिद्ध होती है ।” (स. पृ. 10) _ (28) “उसमें उनका उद्देश्य उपादानकतृ त्व श्रौर निमित्तक्तृत्व का प्रकृत में भेद दिख- लाते हुए यह प्रकट करने का था कि द्रव्यकर्मोदय संसारी श्रात्मा के विकारभाव भ्ौर चतुर्गतिपरि- भ्रमण में उपादान कारणभूत संसारी आत्मा को सहायता मात्र करता है, संसारी भ्रात्मा की तरह वह उस का्यरूप परिखन नहीं होता ।” (स. पृ. 12) (29) “प्रेरक निमित्त वे हैं जो झपनी क्रिया द्वारा अन्य द्रव्य के कार्य में निमित्त होते हैं झऔर उदासीन निमित्त वे हैं जो चाहे क्रियावान द्रव्य हो श्रौर चाहे श्रक्रियावान द्रव्य हो, परन्तु जो क्रिया के माध्यम से निमित्त न होकर निष्किय द्रव्यों के समान श्रस्य द्रव्यों के कार्य में निमित्त होते हैं।” (स. पु. 12) (30) “अनुकूल निमित्तों का सहयोग मिलने पर उपादान की विवक्षित कार्यरूप परिणुत्ति होना श्रौर जब तक भ्रचुकूल निमित्तों का सहयोग प्राप्त न हो तव तक उसकी (उपादान की) विव- क्षित कार्यरूप परिणति न हो सकना यह निमित्तों के साथ कार्यों की भ्रन्वय श्ौर व्यतिरेक व्याप्तियाँ हैं । तथा उपादान की कार्यरूप परिण॒ति के अवसर पर निमित्तों का उपादान को श्रपना सहयोग प्रदान करना भ्ौर उपादान जब तक अपनी कार्येरुप परिखित होने की प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं करता तब तक उनका (निमित्तों का) झपनी तटस्थ स्थिति में बना रहना यह निमित्तों की कार्य के साथ भ्रन्वय और व्यतिरिक व्याप्तियाँ हैं ।” (स. पृ. 13)




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