विचार दर्शन | Vichar-darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कर्ममार्गका सार्विक आनन्द ष्ु
निवृत्ति-परायण और विरागी व्यक्तियोके जीवनमे आनन्द गौर अुत्साह
न मालूम होकर रुक्षता, अुदासीनता और नीरसता देखनेमें आती हे, ुसका
कारण यह हूं कि भुनकी अपनी और दूसरे लोगोकी
निवृत्तिका कुम्रिम भी यह मान्यता होती हे कि अुनमे प्रेम, मवुरता और
मानद अुत्साह नहीं होने चाहिये और हो तो भुन्हे नप्ट कर
देना चाहिये, तथा मैसे कार्य छोड देने चाहिये जिनसे
जिन गुणोंका निर्माण हो। परन्तु यह मान्यता गलत हे । थिस मान्यत्ताके कारण
हम जीवनके सहज सारिविक आनन्दकों यो वेठे हू ओर आनन्द-प्राप्तिके लिये
काल्पनिक और श्रामक सृष्टिमें मनकों रमानेका प्रयत्न करते है । जीवनमें
सात्त्विक आनन्द प्राप्त करते करते हमे अपनी जुन्नति साधनी चाहिये, यह
विचार ही अभी तक हमारे गले नही अुतरा है । आनन्दकी और सुसकी जिच्छा
कभी नणप्ट नहीं होती, जिसलिजे आत्मा-विपयक धघारणासे आनन्दकी अलग
अलग भावनाये भर भक्तिकें निमित्तसे विभिन्न काट्पनिक प्रकार निर्माण
होने पर भुनके द्वारा गानन्द अनुभव करनेकी प्रथा पडी। परन्तु शिस
सारी कत्पनामय सृष्टिसि चित्तकी तृप्ति नही होती और वह प्रत्यक्ष सुख और
आनन्दके लिभे. भूखा ही रहता है--अैसा अनेक अनुभवों परसे देसनेमे
आता है। लिस मूल जिच्छा पर वैराग्यके कितनें ही आवरण चढायें जाय
अथवा कृब्रिम आनन्द निर्माण क'के चित्तको चाहे जितना समझानेका प्रयत्न
किया आय, तो भी कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियो, मन और वुद्धि द्वारा प्रत्यक्ष सुख
और आनन्द अनुभव करनेकी स्वाभाविक जिच्छा प्राणीमे सुप्त रूपसे रहती
ही है। शूठे प्रयलनोसे भुसका कभी नाग नहीं होता। बहुत हुआ तो--
भौर अधिकतर यही होता है--वह केवल विकृत रूप वारण कर छेती
हें। यदि जैसा न होता तो भर जवानीमे ससार छोड देनेवाले वैराग्य-निष्ठ
व्यक्ति आगें जाकर मठ-मन्दिरकी झझटमे क्यो पड़ते ? औसे विरक््तोको देखकर
स्वभावत कोओ टीकाकी वुद्धिसे कहेगा
*घरवार छोड दिया, मठ-मन्दिर बनाने लगा ।
बेटा-पयेटी छोड दिया, चेला-चेली करने लगा ॥
साराश यह कि चित्तकी अवशिष्ट वासना शक या दूसरे रूपमे बाहर
व्यक्त हुअ बिना नहीं रहती ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...