हिन्दू सगुण काव्य की सांस्कृतिक भूमिका | Hindu Sagun Kavya Ki Sanskritik Bhoomika

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Hindu Sagun Kavya Ki Sanskrit Bhoomika by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
[. ११ प्राप्त करता है, चहद अंतरिक्षरथ विप्छ का परमपद 5पासकों (सक्तों या यजनकर्ताओं) के लिये प्राप्तिकामना का लोक है । यह असंसव नहीं कि ब्रह्मवेव्त, पद्म श्रादि पुराणों का गोलोक ( विष्छुलोक ) मघुरचरित मधघुरापति की सुर लीलाशों के मघुसय प्मागार के रूप से विकसित हुआ हो । इसी का रूप सध्यकालीन कृप्णसक्तों से नित्यदुदावन लीला का लोक भी बन गया--यह कल्पना की जा सकती है । पुराणसंहिता,; गर्गसहिता आदि से भी इसका विस्टृत वर्णन सिलता है । “गोपा?, पालनकर्ता , पुष्टिकर्ता चेदिक विष्णु का ही यदि पुराणों सें स्थिति, पालन और पोषण- कर्ता त्रिदेवसध्यांतर्ग॑त विष्णु के रूप से विकास हुआ हो तो फोई आश्चर्य नहीं । इसी प्रकार हीं गोपा, गोप चनकर शागवत श्रादि के वासुदेव देवकीपुन्न, नंद- गोपकुसार, यशोदानंदन के रूप से विकसित हुए हो तो. यह थीं असंभाव्य नहीं है । चेसे छांदोग्योपनिषद्‌ में देवकीपुत्र कृष्ण का नाम झाता है--जो घोर झांगिरस के शिष्य कहे गए हैं। ३९० स्तुतियो ( संध्यागायत्री श्रादि ) से सं्रव्सर-चक्र को नवलानेवाले विष्णु का सी चक्रघर या. चक्ायुघ हो जाना थी अत्यंत सहज है ।* जिस विष्छु के प्रताप से चृष्टि होती है श्रोर साथ ही गायों को दुग्ध होता है उसका कार्लातर में गोपवेचघारी कृष्णाख्य विष्णु द्ोबा करपनागस्य साना जा सकता है । विष्णु दी यजमान तथा देवगणां के दिये ब्रज प्राप्त करानेवाला होने से घ्रजनंदुन, गोपीजनवज्ञम हो सकता है। ( ब्रज च चिष्युः सखिवाँ श्रपोसुंते--ज्दक ० खं० १1१५६।४ ) चिष्छु की दही सहायता पाकर चूँकि इंद्र इतने पराक्रमी हुए--इसी कारण पुराणकार ऋषियों ने देवता के संकरटों का नाश करनेवाले विष्छु को ध्यचतारधारी श्रौर उपेंद्र भी कहा है । वेद्क विष्यु के सक्त, यजनकर्ता श्लुव दोते हैं ध्रतः पुराणों में श्रुव की कथा का पौराणिक गाथा के रूप में चणंन पाया जाता है । १, त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोंपा श्दास्य: । अ्रतो घर्माणि घारयन्‌ । ऋक्वंहिता--१२२1१८ २. तदस्य प्रियममि पाथों श्रश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति । उसक्रमस्य स हि बन्घुरित्था चिष्णोः पदे परमे सध्व उत्सः ॥| अऋक्संडिता १1१५.४१५४, इतना ही नहीं इसके आ्रागेवाली ऋचा में गो” शब्द भी है और 'दष्ण” शब्द भी, जो श्रागे चलकर परमपद को 'गोलोक' से नोड़नेवाला दो सकता है श्रौर विष्णु के वतार कृष्ण को दृष्णियों का नेता भी बना सकता है--(१) 'यत्र गावों भूरिश्वद्धा श्रयातः; (२) “श्रनाद तढुरुगायस्य इष्ण ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now