हिन्दी के श्रेष्ठ काव्यों का मूल्यांकन | Hindi Ke Shreshth Kavyo Ka Mulyakan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वीसलदेद राय डे सफल हो जाता है। मुख्य कथा पु्वे-पीठिका की कथा की भ्रपेल्ा भ्त्तमुतती है । प्रारंभ के ३४ छादों में जीवन-व्यापार के चिंत्र उपस्वित हुए हैं शोर गया निलरनभिस्त रमों हे पपों से संवंधित है तो मुख्य कथा का मिस्तार केवल श्रन्तदूं तियों फे उद्पाटन मैं ठम्रा है । मान श्र प्रवास की स्थितियों में कभी ग्बिता नारी के चित्र उमरे हैं तो कभी दीसा-ससीना प्रतिप्राणा के । कभी विनीत नारी-मूति सामने प्राई है तो कभी ग्पित्ता 1 सांग हो विरह की श्रन्तदंशा्रों श्रौर विरह-प्रवोधक व्यापारों का बगांन भी थ्रा गया है । पिरह की इन घड़ियों की साधिन सियाँ, भाव्रज म्ौर साप्त भी हैं जो संस्तोष देने का काम करती रहती हैं श्रौर कुटनी भी है जो राजमंतो के सनीतव को भंग कराना चादनी है । स्वयं नायिका की श्रोर से पति को समझाने का प्रवत्त विफल हो जाता है तो पण्डित के माध्यम से शवुन ने निकल पासे की बात कहसाकर रोकने का अयल भी है प्ौर प्रवासी पति को सत्देशहर पण्डित के दारा बुलवाने का प्रयल्न भी । यहाँ तक कि राजा श्रौर रानी के सहिदान की चर्चा भी बहाने से रखदी गई है । वारदमासे की योजना तो संभवत; हिन्दी साहित्म में पहनी हो है । देय, ग्रमपं, साम, नि, प्रलाप, विलाप, संलाप, झीौर व्याधि से लेकर मूर्च्छां तक पहुँने हुए श्रनेक चित्र हैं जो विरहिणी की ब्यग्रता श्रौर उसके उद्वेग को प्रकट करने श्ौर पाठक को प्रभावित करने में समय हैं । थे खित्र एक वार श्राकर फिर तुप्त नहीं हो जाते वर्क उद्दिस्त मन की वास्तघिफ काँकी प्रस्तुत करने के लिए वार-वार अति रहेते हैं। इन सबके साथ यौवन का ध्यान वीच-बीच में इस तरह उपस्वित होता रहता है कि उससे नारोत्व यो बल मिलता रहे । यों विरहू का श्रारंभ गौर उसका अस्त दोनों ही दौनता-प्रदर्शन के साथ होते हैं । कुछ उदाहरणों से इन स्थितियों को स्पष्टतया समभक्रा जा सकता है) वीसलदेव द्वारा यह सूचित कर दिये जाने पर कि वह धार थे के सिए उड़ीसा जा रहा है, राजमती की पतिब्रता-सुलभ दीनता जागृत हो जाती है । बहू कहती है: “पर की पानही से रोप कसा ? कीड़ी के ऊपर कटकी कैसी ? मैंने तो हंसी की है । हे स्वामी ! भला पानी के बिना मधली कंसे रहे सकती है ?” छु० ३६ । श्रपनी तुच्छता को स्वीकार करने के लिए इससे श्रधिक नम श्रौर कौन-सी दाव्दावली हो सकती है ? श्रमिन्नता प्रदर्शित करने श्रौर रसान्तर का उपाय ढूंढने का इससे हर जाने की हठ बनी रहने पर इस कथन के रूप में भी प्रक' दाग ८होती है :-- “ऊलग जाए की करइ छी वात । हूं पण आवसु” रावलइ साधि । वांदीय हुई कर. मिरवहूं। पाव तलासिलु ढोलिसु' वाइ)




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