रस सिद्धान्त और सौन्दर्यशास्त्र | Ras Sidhant Aur Soundaryashastra
श्रेणी : शिक्षा / Education
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
455
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सुखबंघ धर
साथ भारतीय, चीनी और जापानी कला-सिद्धान्तों की समानताओं और असमानताओं का
निर्देश करते हुए कला-विपयक सार्वभौम चिन्तन-पद्धति की रूपरेखा प्रस्तुत की है । पुस्तक
के आरंभ में ही अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि “पूर्वी और पश्चिचिमी
दुष्टिकोणों को परस्पर संबद्ध करते हुए कला-विषयक एक सामान्य सिद्धान्त के लिए आधार
प्रस्तुत किया जा रहा है ।”
वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित्त थे कि “एशियाई विचारों को घिना चिछृत
किये यूरोपीय शब्दावली में प्रस्तुत करना कठिन हैं ।” इसलिए हठाकृष्ट तुलना के उत्साह में
एशियाई कला-संकल्पनाओं को विकृत करने की अपेक्षा उन्होंने वौद्धिक ईमानदारी के साथ
एशियाई और प्रासंगिक युरोपीय विचारों को इस प्रकार साथ-साथ रखा है कि वे कुतूहल-
पूर्ण भर प्रतीत न हों । इस प्रयास में उनकी दृष्टि वास्तविक तथ्यों पर ही रही है, तरकों
का वित्तंडा खड़ा कर किसी मत को साग्रह स्थापित करने की प्रवृत्ति से उन्होंने बरावर
बचने का प्रयास किया है, क्योंकि उनका विश्वास था कि “सचेतसां अनुभवः प्रमाणं
तत्र केवलम् ।” *
एशियाई कला संबंधी अपने अन्तरग परिचय के आधार पर आनन्द कुमारस्वामी
ने पाक्चात्य अध्येताओं के सम्मुख यह भली-भाँति प्रमाणित कर दिया कि पूर्वीय देशों में भी
चीन, जापान की अपेक्षा भारत में सीन्द्येशास्त्रीय समस्याओं पर व्यवस्थित चिन्तन
अत्यधिक विकसित था ।*
संस्कृत अलंकारशास्नर की व्यापकता पर प्रकाश डालते हुए आनन्द कुमारस्वामी ने
यह महत्त्वपूर्ण धारणा व्यक्त की कि अलंकार-सिद्धान्त मुख्यतः काव्य, नाटक, नृत्य और
संगीत के प्रसंग में निरूपित होते हुए भी समस्त कलाओं के उपयुक्त सिद्ध हुआ, क्योंकि
इसकी पारिभापिक शब्दावली का अधिकांश रंग-विषयक अवधारणाओं से युक्त है और इस
वात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि अलंकार-सिद्धान्त वस्तुतः चित्रकला पर लागू होता है ।
रस और ध्वनि के सुल आधार को स्पष्ट करते हुए आनन्द कुमारस्वामी ने यह
मान्यता व्यक्त की कि ये दोनों सिद्धान्त मुलतः आध्यात्मिक है और अपनी पद्धति एवं
निष्कर्ष में वेदान्ती है, यद्यपि उन दोनों सिद्धान्तों को उपनिषदों के शुद्ध वेदान्त की अपेक्षा
परवर्ती वेदान्त एवं योग की भापा में व्यक्त किया गया है ।*
जैसा कि परवर्ती विचारकों ने संकेत किया है, आनन्द कुमारस्वामी की सौन्दर्य-
दृष्टि पर अध्यात्म का गहरा रंग था, इसलिए उन्हें भारतीय कला-सिद्धान्तों में प्रायः अध्यात्म-
रंजित तत्त्व ही दृष्टिगोचर हुए । यहाँ तक कि तत्कालीन बौद्धिक, वातावरण के असुकूल
पाश्चात्य अध्येताओं की रुचि को तुष्ट करने के लिए उन्होंने प्राच्य कला की पूर्णतः आध्यात्मिक
ट्रा्सफ़ॉर्मेंशन ऑफ़ नेचर इन आर्ट स, पृ० ३
वही, पृ० ४
वही; पूृ० ५
वही; पु० ६
हर वही, पू० भनप्रुभ
- € # 00. /४.. 0
User Reviews
No Reviews | Add Yours...