हिन्दी के कवि और काव्य भाग 2 | Hindi Ke Kavi Aur Kavya Bhag 2

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Hindi Ke Kavi Aur Kavya Bhag - 2 by श्री गणेशप्रसाद द्विवेदी - Shri Ganeshprasad Dwavedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) सौर परिवार से एक हृष्टांत लेकर कह सकते हैं कि प्रथिवी 'झपने केंद्र पर चक़ाकार घूमती हुई ही सूये की परिक्रमा करती है । 'यपनी घुरी के चारों '्मोर घूमते रददने वाली उस की दैनिक गति ही उसे सूय के चारों शोर उस की चदतू वार्पिक गति को संभव बनाती हे। सूय॑ की परिक्रमा के लिये यदि ऐ्विवी अपनी गति चंद कर दे तो उस की सारी गतिविधि समूल नप्ट न हो जायगी ? इसी प्रकार इन संतों के 'झचुसार दैनिक जीवन ही मनुष्य को शाश्वत जीवन की 'झोर 'सहदज” रूप से झपम्रसर कर सकता है । दूसरा हृष्टांत नदी 'और उस के सागर सम्मिलन से दिया जा सफता है । नदी का प्रतिक्षण का उदेश्य ही है 'पने प्रियतम समुद्र में 'सपने को लीन करना | परंतु नदी अपने दोनों तटों से कण भर के लिये भी अलग हो कर सागर की 'ओोर क्या अग्रसर हो सकती है ? नहीं । अपने दोनों किनारों के 'मसंख्य काम करती हु ही वह अपने चरम उद्देश्य की ओोर अग्रसर होती है। उस के प्रतिन्ृण का जीवन उस के शाश्वतजीवन से इस भिन्न और सहज योग से युफ़ है। एक को छोड़ने का थे होगा दूसरे का 'मसंभव या व्यर्थ हो जाना ? इसी से कबीर ने कददा है कि संसार आर गाहस्प्य जीवन से 'प्रलग होकर में साधना नहीं जानता । साधना में कोई 'ऐंचातानी” नहीं है। साधना में 'दैनिक' 'और 'नित्य' के धीच कोई विरोध नहीं है । इस महान सत्य को कबीर 'औौर दादू ने भली भाँति समझा था छर इसी से परम साधक होते हुए भी थे गृहस्थ थे । यही सहज पथ ही इन के 'नुसार सत्य पथ है। इस ्राशय को इन संतों ने नेक वाशियों द्वारा व्यक्त किया है । कबीर जी कहते हैं -- सदज सहज सब को के, सददज न चीन्दे कोइ । जिन्द सददजै विपया तनी, सदज कद्दीने सोइ ॥ सदज सदज सब को कह, सदज न चीनहें कोइ । पाँचू राख परस तो, सदज कद्दीजे सोइ ॥। सदहजें सदजे सब गए, सुत वित कांमशि काम । एक मेक है मिलि रहा, दासि कबीरा राम | सहज सहज सब को करे, सहज न चौन्हें कोइ | जिन्ह सदजै दरिजी मिलें, सहज कहने सोइ ॥। -फबीर अंथावली' पृष्ठ ४१ इसी 'माशय को भक्तप्रवर सुंदरदास जी ने और भी सुंदरता से प्रगट ५ कक. हद किया है। देखिये उन के *सहज-नंद' नामक अंध में--> ः सहज निरंजन सब में सोई । सदजै संत मिले सब कोई ||




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