बोलते क्षण | Bolate Kshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थीं सोमेंट के ऊपर अंग्रेजी में लिखा है--“हिडिवा टेंपिल रिपेग्रडे चाई रेकुराम--१४६४”--जिन कलाकारों ने मंदिर के द्वार पर दणा- तार, नवप्रह, नतंकों, गायकों इत्यादि के मनौहर चित्र झंकित किए, उनसे दुनिया श्रपरिचित है । पर सन्‌ १८६४ में जिस नादान ग्रामवासी से उनकी कलाकुतियों पर अपनी कुरुचि का गीवर लीप दिया, उसका नाम हर पर्थेटक पढ़ता है । सुनता हूं, वह निकट ही गाव में रहता है, साहब लोगों को शिकार कराने ले जाता है। श्रौर उनसे खासी फीस चसूल करता है। यों हज़ारों रपये जमा हो गए । करे तो कया करे ! ग्यारह शादियां की, श्रब तीन दीदियां जिंदा है । मकान में शिकार के फोटो दीवार पर सजे हैं । सोफासेट हैं, साहब लोगों की भ्रावभगत के लिए। फिर मी पैसा फ्यादा था, तभी तो हिडिवा मंदिर का यह शरूप जीणोंद्धार कराया; अमरता का सेहरा पाने को 1 हिंडिबा मंदिर में हिडिवा की मूर्ति नहीं, भीम का भी कहीं नाम नहीं । दुर्गा की ध्वस्त मूर्ति के खंड हूँ। गर्भगुह में एक चट्टान है, जो बलिंवेदी भी है, उसके नीचे छोटी-सी कांस्य मूतियां, लेकित भीम की प्रेयसी प्रौर पत्नी की मूर्ति नहीं । पांचाल देश के निकट इस क्षेत्र में ही हिडिवा तत्कालीन आदिवासियों की राजकुमारी रही हो तो कोई ताउंजुब नहीं । कुल्लू के क्षत्रिय राजाग़ों ने वाद में झादिवासी देवी पर, 'भगवत्ती दुर्गा का भासन जमा दिया । मैंने देखा, दो सुंदर पहाड़ी वालिकाएं एक छोटे-से सिंहासन को भपने नन्हे कंधों पर संभाले उस जात्रा का अनुकरण कर रही थी, जो चीड़ के इसी चन के एक कोने में प्रस्तुत होती रही है, प्रति वर्ष दश- हरे के भ्रास-पास । तब चोड़ के इस जंगल में ये खुली रंगस्थलियां जग- मगा उठती हैं । पशुग्रों का बलिदान होता है, भ्रनेक कंधों पर लाए गए पिहासनों में से देवठा लोग उतरते ओर श्रपने मानव भक्तों के नृत्य देखते हैं । हिडिवा की कथा की पुनरावृत्ति की जाती है या नहीं, यह शहीं मालूम । झौरन यह कि देवी जिन पथुद्ों का भक्षण करतो है, बा वे उन पाडवों के प्रतीक हैं, जिन्हे हिडिवा का मुखग्रास बनने को अस्तुत होना पड़ा था । भीम ही ने उसके भाई का मानभंजन सौर वध




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