जैन स्तोक मंजूषा [भाग-1, 2, 3, 4] | Jain Istok Manjusha [Bhag-1.2.3.4]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
442
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)|. रे
तेजोलेशी १८ दण्डक, पष्मलेशी शुक्ललेशी तीन-तीन दण्डक
मनुष्य की तरह कह देना चाहिएक्के ।
घ््
२. इह भविए णाणे पर भविए णाणें
का थोकड़ा
(भगवती सूत्र शतक पहले का उद्दृशा पहला)
१--अहो भगवान् । क्या ज्ञान इहभविक (इस भव
में) है या परभविक (पर भव मे) है या. तढदुभय भविक
(दोनो-भवो मे) है ? हे गौतम ' ज्ञान इहमविक भी है,
परभविक भी है श्रौर तदुभय भविक भी है ।
र२--अहो भगवानू क्या दर्शन इहभविक है या
परभविक है या तदुभय भविक है ? हे गौतम ! दर्शन
इहभविक भी है, परभविक भी है और तदुभयभविक भी
है।
३--उहो भगवान् क्या चारित्र इहभविक है या पर-
भविक है या. तदुभयभविक है ? हे गौतम !. चारित्र
इहमविक है किन्तु परभविक नही है, तदुभयभविक नहीं
है । इसी तरह तप और सयम भी इहनविक है किन्तु
परभविक और तढदुभयभविक नहीं है ।
जाना
(श्री भगवती सुत्र पर श्री जवाहिराचायें के व्याख्यान भाग
र पृष्ठ ४८६)
धक़ृष्ण, नील, कापोत, इन तीन भाव लेश्याग्रो में
साधुपना नहीं होता । यहा जो लेश्याए कहीं गई है वे
द्रव्य लेश्याए समभनी चाहिए । (टीका)
User Reviews
No Reviews | Add Yours...