जैन स्तोक मंजूषा [भाग-1, 2, 3, 4] | Jain Istok Manjusha [Bhag-1.2.3.4]

Jain Istok Manjusha [Bhag-1.2.3.4] by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
|. रे तेजोलेशी १८ दण्डक, पष्मलेशी शुक्ललेशी तीन-तीन दण्डक मनुष्य की तरह कह देना चाहिएक्के । घ्् २. इह भविए णाणे पर भविए णाणें का थोकड़ा (भगवती सूत्र शतक पहले का उद्दृशा पहला) १--अहो भगवान्‌ । क्या ज्ञान इहभविक (इस भव में) है या परभविक (पर भव मे) है या. तढदुभय भविक (दोनो-भवो मे) है ? हे गौतम ' ज्ञान इहमविक भी है, परभविक भी है श्रौर तदुभय भविक भी है । र२--अहो भगवानू क्या दर्शन इहभविक है या परभविक है या तदुभय भविक है ? हे गौतम ! दर्शन इहभविक भी है, परभविक भी है और तदुभयभविक भी है। ३--उहो भगवान्‌ क्या चारित्र इहभविक है या पर- भविक है या. तदुभयभविक है ? हे गौतम !. चारित्र इहमविक है किन्तु परभविक नही है, तदुभयभविक नहीं है । इसी तरह तप और सयम भी इहनविक है किन्तु परभविक और तढदुभयभविक नहीं है । जाना (श्री भगवती सुत्र पर श्री जवाहिराचायें के व्याख्यान भाग र पृष्ठ ४८६) धक़ृष्ण, नील, कापोत, इन तीन भाव लेश्याग्रो में साधुपना नहीं होता । यहा जो लेश्याए कहीं गई है वे द्रव्य लेश्याए समभनी चाहिए । (टीका)




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now