अशोक वन और अनारकली | Ashok Van Aur Anarkali
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
90
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ट अदोक घन
सहचारिणी बनेगी । वह सामान्य लोगोंकी पत्रियोंकी तरह न होगी ।
यह मे जानता हूँ कि मेरा सोचा हुआ मार्ग मेरे जीवनको कष्टोमें
डालेगा । कभी कभी ऐसी ऐसी बायाये भी उपस्थित होगीं कि मैं
अपना निश्चित-मार्ग ऊोडनेपर तैयार हो जाउँगा,--यह सब मैं
समझता हूँ । मेरी सहघर्मिणी होनेवालीकों कितनी येदना होगी,--
यह भी पिचारता हूँ ।--पर; खी हृदयको मे थोड़ा थोड़ा पहिचानता
हूँ।--आपदाओको सददनेकी महत्तर शक्ति है उसमें। इस “सखी” नामक
अद्भुत् सृष्टिमें दूसरोंका दु ख देखकर अपने दु खसे भी अधिक दु खी
होनेका एक महत् गुण हे ।
सीता--( गौरग-पूर्ण नेत्रोसे देखती हुई ) ये याक्य मुझे लज्ित
कर रहे है।
राम--स्वाभागिक विनम्रताके कारण ।--तुम जनककी एक-मात्र
छाड़िली पुत्री हो, ये तुम्हे आखोकी पुतलीकी तरह पाल रहे हैं ।
सीता--अरे, मैं व्यर्थ बीचमे बाघक बनी । मेरी बाते
छोड़िए ।--उन आदर्दोकि बारेमे पूरा पूरा सुननेकी उत्सुकता मैं
नहीं रोक सकती ।
राम--जब तक पूष समझमें न आ जाय, तब तक तो तर्क
करना ही चाहिए ।
सीता--अवश्य । मुझे भी पूर्णतया जाननेकी इच्छा है ।
राम--प्रजा-पालन करनेवाले राजाको जीवन-पर्यत कैसे रहना
चाहिए, यह आदर्श मुझे अपने जीयनमे चरिताथ करना है ।
इसछिए, मेरा हाथ पकड़नेयाठी भी उसीके अनुरूप तेजस्वी और इढ़
हो, यह जरूरी है । मेरा निश्चित विचार है कि आवश्यकता
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