अशोक वन और अनारकली | Ashok Van Aur Anarkali

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Ashok Van Aur Anarkali by व्रजनन्दन शर्मा - Vrajnandan Sharma

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about व्रजनन्दन शर्मा - Vrajnandan Sharma

Add Infomation AboutVrajnandan Sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
ट अदोक घन सहचारिणी बनेगी । वह सामान्य लोगोंकी पत्रियोंकी तरह न होगी । यह मे जानता हूँ कि मेरा सोचा हुआ मार्ग मेरे जीवनको कष्टोमें डालेगा । कभी कभी ऐसी ऐसी बायाये भी उपस्थित होगीं कि मैं अपना निश्चित-मार्ग ऊोडनेपर तैयार हो जाउँगा,--यह सब मैं समझता हूँ । मेरी सहघर्मिणी होनेवालीकों कितनी येदना होगी,-- यह भी पिचारता हूँ ।--पर; खी हृदयको मे थोड़ा थोड़ा पहिचानता हूँ।--आपदाओको सददनेकी महत्तर शक्ति है उसमें। इस “सखी” नामक अद्भुत्‌ सृष्टिमें दूसरोंका दु ख देखकर अपने दु खसे भी अधिक दु खी होनेका एक महत्‌ गुण हे । सीता--( गौरग-पूर्ण नेत्रोसे देखती हुई ) ये याक्य मुझे लज्ित कर रहे है। राम--स्वाभागिक विनम्रताके कारण ।--तुम जनककी एक-मात्र छाड़िली पुत्री हो, ये तुम्हे आखोकी पुतलीकी तरह पाल रहे हैं । सीता--अरे, मैं व्यर्थ बीचमे बाघक बनी । मेरी बाते छोड़िए ।--उन आदर्दोकि बारेमे पूरा पूरा सुननेकी उत्सुकता मैं नहीं रोक सकती । राम--जब तक पूष समझमें न आ जाय, तब तक तो तर्क करना ही चाहिए । सीता--अवश्य । मुझे भी पूर्णतया जाननेकी इच्छा है । राम--प्रजा-पालन करनेवाले राजाको जीवन-पर्यत कैसे रहना चाहिए, यह आदर्श मुझे अपने जीयनमे चरिताथ करना है । इसछिए, मेरा हाथ पकड़नेयाठी भी उसीके अनुरूप तेजस्वी और इढ़ हो, यह जरूरी है । मेरा निश्चित विचार है कि आवश्यकता




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now