जीनेन्दु | Jinendu

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Jinendu  by जिनेन्द्र कुमार - Jinendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महाप्रज्ञ : मेरी दृष्टि में वह पारदर्शी स्फर्टिक है , जिसक॑ सामने से गुजरने वाला हर व्यक्ति अपना प्रतिबिम्ब वहां छोड़ देता है । बार-बार छोड़ गए बहुरु पी प्रतिबिम्ब एक रंग बिरंग गुलदस्ते के रु पे में स्थिर हो सकते हो जाते है और उनके आधार पर व्यक्ति का स्वाभाविक विश्लेषण होता रहता है । युवाचार्य महाप्रज् का व्यक्तित्व भी मेरी दृष्टि पर इस प्रकार सं अकित हा चुका है , जिससे लगभग पांच दशकों क॑ संस्मरण अपनी व्यापक प्रस्तुति के लिय उतावल हा रहे है । उन सबका व्यक्तिकरण या लिपिकरण न तो सम्भव है ओर न अपेक्षित हा हैं । फिर भी मर मन म जिस स्थिति को अमिट छाप है, वह ह अर्चिन्तित रु पान्तरण। एक व्यक्ति अपने समर्पण अपन सकल्प ओर अपनी साधना से कितना बदल जाता हे और कहा से कहा पहुंच जाता है , इसका प्रत्यक्ष निदर्शन है हमार युवाचार्य महाप्रज्ञ, जिनकी इस यात्रा का प्रारम्भ मुनि नधमल क॑ रुप म॑ हाता हे। मुनि की भूमिका ह वि स 1687, शीतकाल का समय, मर्यादा-महात्सव का उल्लास और माघ शुक्ला दशमी का दिन स्वर्गीय गुरु दब पूज्य कालूगणीजी न एक साढ़े दस वर्षीय बालक नथमल को दिक्षित करें मुझे सौप दिया। यह सांपना एक शैक्ष मुनि को साधु जीवन का प्रारम्भिक अब बोध कराने या अध्ययन कराने की द्रष्टि से ही नहीं था, इसमें निहित थी जीवन के सर्वागीण विकास की सम्भावना ओं काउभार देन की एक व्यापक दृष्टि । उस दिन स लेकर अब तक मुनि नथमलजी एक समर्पित शिष्य के रु प मे मरे पास रहे और भी उनके सर्वात्मना सर्मापित जीवन के रेखाचित्र मे अपेक्षित रंग भरता रहा। मुरनि नथमल जी की ग्रहणशीलता ओर मरी सृजनशीलता के अन्योन्याश्रित संयांग ने उनको युवाचार्य महाप्रश की भूमिका तक पहुंचा दिया, जिसकी मैने उस समय कांई कल्पना ही नही की थी। कालूगणी की कृपा महाप्रज्ञ अपने मुनि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों मे बहुत भोले थे। इन्होंने अपने खाने-पीने, घूमने- फिरने, बैठने-सोने, पहनने-ओढ़ने आदि के सम्बन्ध मे कभी सोयने-विचारने का प्रयत्न ही नही किया । मै जो कुछ कहता, उसे ये सह जभाव से कर लेते । भोजन कब करना है और क्या करना हैं ? इस दैनदिन कार्य में ये मेरे निर्देश की प्रतीक्षा करते रहते । वस्त्र कब सिलाने है ओर कब पहनने है , यह काम भी ये अपने आप नहीं करते थं। शीतकाल मे स्वाध्याय करते-करते बिना हो वस्त्र ओढ़े तब तक सोते रहते, जब तक मै इन्हे जगाकर वस्त्र आढ़े नही सुला देता । इनकी गति भी विलक्षण थी। कालृगणी बहुत बार इन्हे अपने सामने दस बीस कदम चलने के लिए कहते और जब ये टेढे-मेढ़े कदम भरते न समर हि “02 प




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