संक्रांति और सनातनता | Sankranti Aur Sanatanata

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Sankranti Aur Sanatanata by छगन मोहता - Chhagan Mohata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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होता है। वाणी से कहा नहीं जा सकता । धारणा उस की बन नहीं सकती । फिर भी जैसा कि तुलसीदास कहते हैं “तदपि कहे विन रहा न कोई” । कुछ बात पत्ते डालने के छिए इशारे करते हैं। तो रियलिटी के लिए इस तरह से कुछ इशारे हो सकते हूँ। उन में एक है सत्ता या सतु। सत्‌ या सत्ता का अं हैजो हमेशा है, 'था', भर “रहेगा'। यहू भी काल की भाषा है जबकि 'रियलिटी' को कालातीत कहते हैं । क्योकि काल की वहाँ गति नहीं होती! दूसरा है चितु। इसीछिए उसे चिदाकाश कहते हैं। चितू का अरे है वह तत्त्व जो अपने को और अपने से अन्य को जानता है। और जो अचितु है वह जड़ न अपने को जानता है और न अन्य को । तो पहला लक्षण है सत्‌, दूसरा चिदु और तीसरा है आनन्द । आनन्द सुख नही है। इसे थोडा समभ लें । कई बार हम उलझ जाते हैं इन दोनों मे । न्यायशास्त्र ने परिभाषा दी है, “'अनुकुछू वेदनी य॑ सुखम्‌ प्रतिकूल वेदनीयं दु-खमू ।” अनुकूल और प्रतिकूल का अरय यही है कि हमारी इन्द्रियों के स्पन्दनों से अगर मेले है तो अनुकूछ, नहीं हो प्रतिकूल । इसी को सुख और दु-ख कहते हैं। लेकिन चिंतु की एक ऐसी अवस्था है जहाँ बाहर के संवेदन नही है, जहाँ न अनुकूलता है और न प्रतिकूलता, उस को हम कया कहेंगे ? सुख और दुःख दोनों नहीं है फिर भी आनन्द आता है। उदाहरण के रूप में गहरी नीद न तो सुखदायक है और न दुः्खदायक है पर आनन्द है। वह एक आनन्द की अनुभ्रूति तो है पर उस में होश नही है इतना ही फर्क है । आनन्द की अनुभूति तो है हमे-सुख और दुख दोनो से नि्देन्द अनुभूति है-पर होश नही है। बन्द को करीब- करीब नजदीक से समभतने का यह उदाहरण है क्योकि जव हम होश में आते हैं तो कहते हैं कि बड़े मड्े की भीद आई । यह आनन्द की अनुभुति की अभिव्यंजना है। तो 'र्यिलिटी” के लिए ऐसा कहा जाता है कि यह सद्‌- चितु-बानन्द है। इस के वर्णन के लिए दो बातें और कही जाती है--एक तो महू कि 'रिपलिटी' अद्वितीय है। कोई दूसरी 'रियलिटी' नहीं। और मे तमाम धर्मों के संस्यापकों के मुंह से निकली हुई उक्ति है। बेद में है 'एकमु एवं अद्वितीयमू” वह एक ही सत्ता है। कुरान में भी कहा गया है कि “अल्लाह के अलावा और कोई नही है।” इसलिए रियलिटी एक है भौर अपने आप में पूर्ण है। इसलिए उसे अद्वितीय कहा जाता है। और दूसरी है उस की स्वतन्त्रता । स्वतन्त्रता का अय है कि कोई भी चीज़ उस के लिए वाघक नहीं हो सकती--यह अवाध है। बाधा या तो देश की होती है या काल की था करमें देवाय हुविपा विधेम 17




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