श्री इन्द्रियपराजयशतक | Shree Indriye Parajay Satak

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Shree Indriye Parajay Satak by वुद्दुलाल श्रावक - Vuddulal Shrawak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११३) सो मण्णण वराओ 'सयकायपरिस्समं सक्खें ॥ ३४ ॥ जुम्म॑ दुर्मिल ( सचेया )। श्मके वशमें फँंसि कूकर ज्यों; रसके हित अस्थि 'चवावत है । निज श्रोणित चाखत मोद भरो; पर नेकु विवेक स लावत है ॥ नर हू वनिता तन सेवनतें, तनिको न करूँ सुख पावत है । निज देह परिश्रसके मिसतें, सुखकी सठ भावना भावत है ॥३३६-१४॥ 'युग्म सुझवि मर्गिजंतो कत्यवि कयलीड णत्यि जह सारो । इंदियविसएसु तहा णत्ति सुदद सुइवि गविई ॥ २५ ॥ दोहा । हु विधि सोजत हर नहीं; रेम्मधम्भमें सार । तैसे इन्द्रियविपयसुख, जानहु सदा असार ॥ इ५ ॥ सिंगारतरंगाए विरासवेलाइ जुव्वणजलाए । के के जयंमि पुरिसा णारीणइए ण चुइति ॥३६९॥ १ कैठेका संभ 1




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