श्री रज्जब वाणी | Shri Rajjab Vani
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
55 MB
कुल पष्ठ :
1460
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास पुष्कर - Santkavi Kaviratn Svamee Narayandas Pushkar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तासां तत् सौभगभंदं वीकष्य मानें च केशव: ।
प्रशमाय प्रसादाय... तत्रवान्तरघोयत ॥1
नारद ने तो इसी लिए “नारदस्तु तदपिताखिलाचारता तद्विस्मरणे
परमव्याकुलतेति' सुत्र के द्वारा परम व्याकुलता रूप विरह को भक्ति का
स्वरूप ही मान लिया है ।
भक्त भगवान को पति या स्वामी मान कर तथा स्वयं को
कान्ता समभ कर सेवा करता है। इस प्रकार की श्राराघना बहुत से
भक्तों में मिलती है । जसे--
'दादू” पुरुष हमारा एक है हम नारी बहुरड् ।
जे जे जसी ताहिसों खेले तिस हो सड्ध ॥।
नारद ने भी “त्रिरूपभंगपुर्वकं नित्यदासनित्यकांताभजनात्मक॑ वा
प्रमव कायम । इस सूत्र के द्वारा यही बात बतलाई है ।
श--श्रभिमान का परित्याग तथा दीनतादि भावों का ग्रहण भक्ति
के लिए श्रावश्यक है । नारद ने ईश्वरस्याप्यभिमानद्वे घित्वात् देन्यप्रिय-
त्वाच्च' 'प्रभिमानदम्भादिकं त्याज्यमु' इन सत्रों से ईदवर को अ्रभिमान-
देषी तथा दीनताप्रिय बतलाया है । भागवत में भी इसी रहस्य को
बतलाया है:--
बह्मनु यमनुगहणामि. तद्विशों विधनोम्यहम
यन्मद: पुरुष: स्तब्धों लोक मां चावमन्यते ॥।
मकमवयोरूपविद्यदवयं घना दि शि:
यद्यस्य न भवेत् स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रह: ॥।
इ-कामिनी व काल््चन का परित्याग भी भक्ति के लिए श्रावइ्यक
है जैसा कि भागवत में कहा हैः--
पदापि.. युर्वात भिक्षुनें स्पज्नेदू दारवीमपि ।
स्पूशन् करोव बध्येत करिण्या श्रंगसंगतः ॥।
योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादिषु द्रव्येषु सायारचितेषु मूढः ।
प्रलोभितात्मा ह्यपयोगबुद्ध्या पतंगवन्नइयति नष्टहष्टिः ॥
नारद ने भी “स्त्रीघननास्तिकर्वी रचरित्रं न श्वणीयम्” इस सूत्र के
द्वारा उपयु क्त कामिनी व काव्चन के परित्याग को भक्ति का श्रावश्यक
तत्त्व बतलाया है ।
७--बाह्य लौकिक मर्यादाश्ं का परित्याग भी भक्ति की उन्नत
दशाओं में स्वत: सिद्ध है । नारद ने भी 'यो लोकबन्धमन्मलयति निस्त्रै-
गुण्यो भवति' इत्यादि सूत्र के द्वारा इसी रहस्य का स्पष्टीकरण किया
हर । इसी लिए ज्ञानी को व श्रत्त्युत्तम भक्त को अ्रतिवर्णाश्रिमी कहा गया
।- जैसे--
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