पाणिनी = प्रोक्त समाजव्यवस्थापरक शब्दों का आलोचनात्मक अध्ययन | Padini-prokta Samajvyavasthaparak Shabdo Ka Aalochanatmak Adhyayan

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Padini-prokta Samajvyavasthaparak Shabdo Ka Aalochanatmak Adhyayan by रामचन्द्र पाण्डेय -Ramchandra Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[11] भी स्पष्ट उल्लेख है। इससे यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि सहिताओ मे बीज रूप मे उपस्थित व्याकरण का ब्राह्मण युग मे सविशेष विकास हुआ | अवान्तर काल मे वेदों की प्रत्येक शाखा के लिए प्रातिशारब्यो की रचना हुई जो वर्णों के स्थान तथा प्रयत्न, स्वर, सहिता (सन्धि) आदि का सूक्ष्म विवेचन करने के कारण व्याकरण के ही पूर्व रूप माने जाने चाहिए । इनमे व्याकरण के जो पारिभाषिक शब्द मिलते है, उनमे से अधिकाशत उत्तरकालीन वैयाकरणो द्वारा अपने ग्रन्थो मे ज्यो का त्यो ले लिये गये है। स्वय महर्षि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी मे शुक्लयजु प्रातिशारख्य की उपधा, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित और आभम्रेडित आदि सज्ञाओ को ज्यो का त्यो ले लिया है। सबसे प्राचीन प्रातिशाख्य शौनक-कृत ऋक्‌ प्रातिशाख्य है जो पाणिनि से पूर्ववर्ती है। अनुमानतः ईसा पूर्व अष्टम्‌ शताब्दी के आचार्य यास्क का निरूक्त प्रायेण निर्वचनमूलक है । निर्वचन भी तो व्याकरण के विशाल क्षेत्र के अन्तर्गत ही आता है। यह और बात है कि निरूक्त एव व्याकरण के निर्वचन कार्यों मे प्रकार और मात्रा दोनो का भेद है | सस्कृत वाड्मय मे इतस्तत विकीर्ण व्याकरण विषयक सामग्री, यास्क के निरूक्त, वेदो के विभिन्‍न प्रातिशाख्यो तथा पाणिनीय अष्टाध्यायी मे उदृ्घृत अनेक वैयाकरणो के विविध मतों के आधार पर कहा जा सकता है कि आचार्य पाणिनि से पूर्व वैयाकरणो की एक सुदीर्घ परम्परा विद्यमान थी | वैयाकरणो की इस परम्परा मे केवल पाणिनि ही ऐसे आचार्य हुए जिन्होने वैदिक तथा लौकिक उभयविध शब्दों को आधार बनाकर अपने प्रशस्त व्याकरण ग्रन्थ” अष्टाध्यायी का सफलतापूर्वक प्रणयन किया | उनसे पूर्ववर्ती अथवा परवर्ती वैयाकरण प्राय वैदिक शब्दों को अथवा लौकिक शब्दों को ही अपने-अपने व्याकरण का विषय बना सके थे | अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से व्याकरण के आचार्यों का तीन श्रेणियो मे विभाजन किया जा सकता है- १.... ओडकार पृच्छाम को धातु, कि प्रातिपदिक, कि नामाख्यात, कि लिड्ग, कि वचन का विभक्ति, क स्वर उपसर्गोनिपात, कि वै व्याकरण, को विकार , को विकारी, कतिमात्र कतिवर्ण , कत्यक्षर., कति पद., क सयोग ,कि स्थाननादानुप्रदानानुकरणम्‌ | -गोपथ पूर्व १-२४)




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