भक्तामर | Bhaktamar

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Bhaktamar by आचार्य रत्नाकर - Aacharya Ratnakarप्रेम भण्डारी - Prem Bhandariप्रेमराज बोगावत - Premraj Bogavat

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आचार्य रत्नाकर - Aacharya Ratnakar

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प्रेम भण्डारी - Prem Bhandari

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प्रेमराज बोगावत - Premraj Bogavat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संवत का ही उल्लेख किया है । पुरे दर्शनसार में कहीं शक संवत्‌ का उल्लेख नहीं है। गाथा संख्या ५० में वि. सं. अथवा अन्य किसी संबतू का उल्लेख किये बिना केवल “रावसए खवए””-अर्थाव॒ '€०४६ में' यही उल्लेख किया है । ऐसी स्थिति में यह विक्रम सं. से भिन्न अन्य कोई संवत्‌ नहीं हो सकता । इस पर फिर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि घथि. सं. ६०९६ में 'दर्शनसार' की रचना करते समय ४४ वर्ष पश्चात्‌ वि. सं. €५३ में उत्पन्न हुए माथुर संघ की उत्पत्ति का चिवरण आचायं देवसेन ने किस प्रकार दिया ? इस प्रश्न के सभी पहुलुप्रों पर समीचीनतया विचार करने के पश्चात्‌ हमें यह अनुमान करने को बाध्य होता पड़ता है कि आचार्य देवसेन उस गाथा के पूर्वाद्ध को “रइओ दसरसारों हारो भव्वारा रावसए रवइए' के स्थान पर निम्तलिखित रूप में लिखा होगा-- “रइद्रो दंससासारो, हारो भव्वार्त रवसए. रावइए ॥ छाया:-रचितो दर्शनसार:, हार: भव्यानां नवदाते नवतिके । जर्धत्ति--(ब्रित सं.) ६६० में दशनसार की रचना की । संभवत: प्रूवेंकाल में कोई लिपिकार ई को चवा मया, अथवा स्वयं दर्शनसारकार या प्रवुद्ध विद्वान लिंपिकार ने छंदमंग की शुटि को शुद्ध करने की दृष्टि में 'छन्दोनुरोधात्‌” 'इ” का लोप कर दिया हो । ऐसा प्रतीत होता है कि छन्दोनुरोधात्‌ 'णवइए' का “णवए' किया गया है--यह तथ्य आज तक किसी चबिद्वान के ध्यान में नहीं श्राया । इसके फलस्वरूप इतिहास के लब्ध प्रततिष्ठ विद्वाद्‌ भी सं. €£० की वजाय इस पद का अर्थ €०€ करते रहे श्रौर इस सम्बन्ध में अनेक प्रकार का व्यथे ही ऊहा- पोद्ट चलता रहा ।. ““सबसए णवइए'' पाठ स्वीकार कर लेने पर अथवा छन्दो- नुरोधात्‌ किये गये “'णवसए णवए'' का अर्थ €€० स्वीकार कर लिये जाने पर गुर्थी स्वत: ही सुलभ जाती है और श्राचार्य देवसेन का समय भी विक्रम सं. €०६ के स्यान पर ८१ वर्ष आये का निधिचत हो जाता है । आशा है इस सम्बन्ध में इतिहास के विद्वान श्रौर अधिक प्रकाश डालने की कृपा करेंगे । ग्रन्त में मैं सम्यकज्ञान प्रचारक मण्डल के अधिकारियों को इस प्रकार के सर्वे- जनोपयोगी प्रकाशन के लिये बधाई देते हुए कामना करता हूं कि हजारों लाखों साधक इस पुस्तक में दी गई उत्क़ृप्ट भक्तिरस प्रधान तीनों कृतियों के सहन सुगम श्रतुवाद का नियमित स्वाध्याय कर श्रध्यात्म मार्ग पर श्रग्रसर होंगे | रसठोड सदन, जयपुर. दी गजसिह राठोड़ द द-र-७४ न्याप, च्या. तोयथें




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