तीर्थकर | Tirthkar

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Tirthkar by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ५ ) इस कथन के प्रकाश में तुलनात्मक तत्वज्ञान के अस्यासी विद्वान जैनघुम का अस्तित्व वेदों के पूवकालीन स्वीकार करते हैं, क्योकि जैनधर्म के संस्थापक भगवान ऋषभदेव का भश्रस्तित्व वेदों के भी पूर्वे का सिद्ध होता है। इससे उन लोगों का उत्तर ही जाता है, जो जैनघममं का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करने सें कठितता का झनुभव करते हैं। प्रकाण्ड विद्वान्‌ डाक्टर मंगलदेव एंम० ए० डी० लिट्‌, काशी के ये विचार गंसीर तत्वथितन के फल स्वरूप लिखे गए हैं, “वेदों का, विशेषतः ऋग्वेद का काल भति प्राचीन है। उसके नादसीय सद्श सूक्तो ध्ौर मंत्रों में उत्कृष्ट दार्शनिक विचारधारा पाई जाती है । ऐसे युग के साथ जबकि प्रकृति के कार्य निवाहिक तत्तद देवताभों की स्तुति झादि के रूप में श्रत्यंत जटिल वैदिक कर्मकांड ही भ्राय॑ जाति का परम ध्येय हो रहा था, उपर्युक्त उत्कृष्ट दार्शनिक विचार की सगति बैठाना कुछ कठिन ही दिखाई देता है । हो सकता है कि उस दार्शनिक विचार- घारो की झ्रादि स्रोत वैदिक घारा से पृथक या उससे पहले का हो ।”' “बह्मसूत्र शाकरभाष्य में कपिल-साख्यदर्शन के लिये. स्पष्टतः अरवैदिक कहा है ।. “न तया. श्रुतिविरुद्धमपि... कापिलं मं श्रद्धातु शक्‍्यम्‌” (ब्र० सू० झां० भा० २1११) । इस कथन से तो हमे कुछ ऐसी ध्वनि प्रतीत होती है, कि उसकी परम्परा प्राग्वैदिक या वैदिकेतर हो सकती है । जो कुछ भी हो, ऋग्वेद संहिता में जो उत्कृष्ट दादनिक विचार भ्रंकित है, उनकी स्वयं परम्परा श्रौर भी प्राचीनतर होनी चाहिये । डॉ० मज्जलदेव का यह कथन ध्यान देने योग्य है--(१) “जेनदर्शन की सारी दाशंनिक दृष्टि वैदिक दाशंनिक दृष्टि से स्वतन्त्र ही नहीं, भिन्न भी है । इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता । (२) हमें तो ऐसा प्रतीत होता है, कि उपर्यक्त दार्शनिक घारा को हमने ऊपर जिस प्राग्वैदिक परम्परा से जोड़ा है, मूलतः: जैन-दर्शन भी उसके स्वतन्त्र-विकास की एक दाखा हो सकता है। (१) जैनदशेन की भूमिका, पृष्ठ १० (२) स्व० जर्मन शोधक विद्वान डा० जैकोबी ने जैनघभम की स्वतन्त्रता तथा मौलिकता पर भ्रन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस में चर्चा करते हुए कहा था: , ,.. फ ८्णाधांणा 18. शाध 85551. पाए. 00घ्रशंटत00 (081 ि्ाधिणा 18 बच णांड्रांप81 इफ्हट्ा0, पु्ादट तीाडफटा 800 उतेड0थाउंटा। शिणा। 811 0पिटा5 500 (081 पीडा्डॉण८ 1 15 एव. ड्राट्51 ब 8106 णि प्री इत्र 0 फताण्०फफाप्!ी फि०्चड्ा 808 कसीडा०घ8 िट उंघ घटांटा उ्ती&'--अघपतां्य 10 उंत्ांइ्ा 2-60,




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