जैन लक्षणावली | Jain Lakshanavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो शब्द सन्‌ १९३६ में मेरी नियुक्ति वीर-सेवा-मंदिर सरसावा में हुई । उसके समभग कोई डेढ़ वर्ष बाद मुख्तार साहब ने एक दिन बुला कर मुमसे कहा कि दिगम्बर-दवेताम्बर समाज में ऐसा एक भी दब्दकोष नहीं है, जिसमे दोनों सम्प्रदाय के प्रत्थों पर से लक्षणात्मक लक्ष्यदाब्दों का संकलन किया गया हो । प्राकृत भाषा का 'पाइय-सह-महण्णवो' नाम का एक इवेताम्बरीय दब्दकोष श्रवव्य प्रकाशित हुआ है । पर उसमे दिगम्बर प्रत्थो मे पाये जाने वाले प्राकृत शब्दों का झभाव है--वे उसमें नहीं हैं । दूसरा भ्रागम शब्दकोष है जिसमे प्रघंमागधी प्राकृत के शब्दों का श्रथे हिन्दी, भंग्रेजी भर शुजराती भाषा मे मिलता है । पर दिगम्बर समाज मे प्रचलित प्राकृत भाषा का एक भी दशब्दकोष नहीं है जिसके बनने की बड़ी म्रावइ्यकता है । मेरा विचार कई बर्षों से बल रहा है कि दिगम्बर प्राकृत-संस्कृत प्रष्यों पर से एक धब्दकोप का निर्माण होना चाहिए भर दूसरा एक 'लाक्षणिक दाब्दकोष' । जब उपलब्ध कोषों में दिगम्बर शब्द नहीं मिलते, तब्र बड़ा दुख होता है। पर क्या करूं, दिल मसोस कर रहे जाना पढ़ता है, इघर मैं स्वयं भ्रनवकाश से सदा घिरा रहता हूँ । श्रौर साघन-सामग्री भी अभी पूर्ण रूप से संकलित नहीं है । इसी से इस कायं मे इच्छा रहते हुए भी प्रवृत्त नहीं हो सका । अब मेरा निश्चित विचार है कि दो सौ दिगम्बर शरीर इतने ही इ्वेताम्बर प्रत्थों पर से एक ऐसे लाक्ष शणिक शब्दकोष के बनाने का है जिसमे कम से कम पच्चीस हजार लाक्षणिक शब्दों का संग्रह हो । उस पर से यह सहज ही ज्ञात हो सकेगा कि मौलिक लेखक कौन है, श्रौर किन उत्तरवर्ती भ्राचायों ने उनकी नकल की है । दूसरे यह भी ज्ञात हो सकेगा कि लक्षणों मे क्या कुछ परिस्थितिवंश परिवर्तन या परिः वर्घन भी हुमा है । उदाहरण के लिए 'प्रमाण' शब्द को ही ले लीजिए । प्रमाण के झनेक लक्षण हैं, पर उनकी प्रामाणिकता का निर्णय करने के लिए तुलनात्मक श्रध्ययन करने की घावइयकता है । प्राचार्य समन्तभद्र ने 'देवागम' में तरंवज्ञान को भौर स्वयंभूस्तोत्र मे स्व-परावमासी ज्ञान को प्रमाण बतलाया है' । श्रनतर न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन ने समन्तभद्रोक्त 'स्व-परावभासी शान के प्रमाण होने की मान्यता को स्वीकृत करते हुए 'बाघवर्जित' विशेषण लगाकर स्व-पराव- भासी बाघा रहित ज्ञान को प्रमाण कहा है । पश्चात्‌ जैन न्याय के प्रस्थापक अ्कलं कदेव ने 'स्वपराव- भासी' विशेषण का समधेन करते हुए कहीं तो स्वपरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण बतलाया है घ्ौर कही प्रनघिगताधंक प्रविसवादी ज्ञान को प्रमाण कहा है' । श्राचार्यं विद्यानन्द ने सम्यग्क्ञान को प्रमाण बतलाते हुए 'स्वाथंव्यवसायात्मक' ज्ञान को प्रमाण का लक्षण निर्दिष्ट किया है” । माणिवयनन्वी ने एक हो वाक्य में 'स्व' भ्रौर 'श्रपूर्वाथ' पद निविष्ट कर श्रकलक द्वारा विकसित परम्परा का ही एक प्रकार से प्रचुसरण किया है । सूत्र मे निविष्ट “अपर पद माशिक्यनदी का स्वोपश नहीं है, किन्तु उन्होंने श्रनिदिचित १. तत्त्वज्ञान॑ प्रमाण ते. युगत्पत्सवंभासनम्‌ । देवा का. १०१- >( न >( स्व-परावभासकं यथा प्रमाण भुवि बुद्धिलक्षणम्‌ । वृहृत्स्वयं. ६३. २. प्रमाण स्व-परावभासि ज्ञान॑ बाघविवजितम्‌ । न्यायवा. है, ३. व्यवसायाह्मकं ज्ञानमाह्मार्थ ग्राहक मतम्‌ू । लघीयस्त्रय ६०. प्रमाणमविसवादि ज्ञानमु, श्रनिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात्‌ । श्रष्टश, का« ३६. ४. तत्स्वाथव्यवसायात्मज्ञान मानमितीयता । लक्षणन गताधत्वात्‌ व्यर्थ मत्यद्विशेषणम्‌ ॥ तत्त्वाथंश्लोकवा- १, १०, ७७; प्रमाणप. पृ८ ५३.




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