देवेन्द्र मिलाप | Devendra-milap
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
46
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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फर पर पा पा पर पर फराफग पर फरा पर पा फ पाप
मे घर्म कामादिक खुख से दशो दिशा भर सकते हैं ।
लेकिन विमल प्रमकी समता कभी नहीं कर सक्ते हैं ॥
प्रेम विक्श हो प्रेम दाक्ति से विधिने खेल पारा है ।
रिके हुए ब्रह्मांड अनेकों केवल प्रेम सहारा हैं ॥ ३७
चर अरू अचर प्रेम के बल से जगमें जीवित रहते हैं ।
ईश्वर प्रेम प्रेम ही इंइवर एसा पंडित कहते हैं ॥
पाकर उसी पेम मंदिर से अनायास ही प्रेम प्रसाद ।
प्रेम मझ होकर प्रेमी जी क्यों न भूलते तन की याद ॥ ३८
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कालिज में भी उसी प्रेम का सुख दायक रस घोल दिया ।
सहज स्वभाव खमान भाव से परम खजाना खाल दिया ॥
जीवन का सुख मूल प्रेम हो जीवन मूरि समान हुआ ।
खाते पीते सोते जगते सब में प्रेम प्रश्न हुआ ॥ ३९,
बाहर भीतर तनमें मन में चाल ढाल में समा गया ।
नस नस में रस भिदा प्रेस का बाल बाल में समा गया ॥
मनसा बाचा और कमणा पावन प्रेम प्रकाशा हुआ ।
बढा परस्पर प्रेम दिलों में रागद्वंप का नादा हुआ ॥ ४०
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डडगण सहित चन्द्र को जैसे सूये प्रकाशित करते हैं ।
बिना परिश्रम अनायास ही अंधकार को हरते हैं ॥
इसी तरह से प्रमी जी का सब पर पू्ण प्रभाव हुआ |
खत खंगी युवकों के दिलमें प्रेम भक्ति का चाव हुआ ॥ ४१
सेवा भक्ति प्रेम के बल को भलीभांति से मनन किया ।
प्रेम कुटी में सच्चे प्रेमी मित्रों का संगठन किया ॥
प्रेम देव के सन्मुख करके मुस्तैदी से कौ करार ।
प्रेम मंडली बनी अनोखी सभा खदों की बढ़ी झुमार ॥ ४२
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