देवेन्द्र मिलाप | Devendra-milap

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Devendra-milap by छेदालाल - Chhedalal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७) (1-5. रॉ. छठ... पिन... 2... ली, -श्न3 रु पु फर पर पा पा पर पर फराफग पर फरा पर पा फ पाप मे घर्म कामादिक खुख से दशो दिशा भर सकते हैं । लेकिन विमल प्रमकी समता कभी नहीं कर सक्ते हैं ॥ प्रेम विक्श हो प्रेम दाक्ति से विधिने खेल पारा है । रिके हुए ब्रह्मांड अनेकों केवल प्रेम सहारा हैं ॥ ३७ चर अरू अचर प्रेम के बल से जगमें जीवित रहते हैं । ईश्वर प्रेम प्रेम ही इंइवर एसा पंडित कहते हैं ॥ पाकर उसी पेम मंदिर से अनायास ही प्रेम प्रसाद । प्रेम मझ होकर प्रेमी जी क्यों न भूलते तन की याद ॥ ३८ मैं भें कै कालिज में भी उसी प्रेम का सुख दायक रस घोल दिया । सहज स्वभाव खमान भाव से परम खजाना खाल दिया ॥ जीवन का सुख मूल प्रेम हो जीवन मूरि समान हुआ । खाते पीते सोते जगते सब में प्रेम प्रश्न हुआ ॥ ३९, बाहर भीतर तनमें मन में चाल ढाल में समा गया । नस नस में रस भिदा प्रेस का बाल बाल में समा गया ॥ मनसा बाचा और कमणा पावन प्रेम प्रकाशा हुआ । बढा परस्पर प्रेम दिलों में रागद्वंप का नादा हुआ ॥ ४० 24 डडगण सहित चन्द्र को जैसे सूये प्रकाशित करते हैं । बिना परिश्रम अनायास ही अंधकार को हरते हैं ॥ इसी तरह से प्रमी जी का सब पर पू्ण प्रभाव हुआ | खत खंगी युवकों के दिलमें प्रेम भक्ति का चाव हुआ ॥ ४१ सेवा भक्ति प्रेम के बल को भलीभांति से मनन किया । प्रेम कुटी में सच्चे प्रेमी मित्रों का संगठन किया ॥ प्रेम देव के सन्मुख करके मुस्तैदी से कौ करार । प्रेम मंडली बनी अनोखी सभा खदों की बढ़ी झुमार ॥ ४२ के श् क्र हर पर पर पर फ फा पा पर पण पर फिर पर पर एफ पा फा पर फ पर पर परम पर परम




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