बापू की छाया में मेरे जीवन के सोलह वर्ष | Bapu Ki Chaya Main Mere Jeevan Solah Varsh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
48 MB
कुल पष्ठ :
712
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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लिये कोई लालसा नहीं की । इसी कारण मेरे 'छान्य साथियों के लिखे
हुए नेक क्ीमती संस्मरण मेरे पास आने पर भी मुमे यह ख्याल
नषमाया कि मेरे गाँव की भमॉपड़ी में खँँटी पर लटकी हुई कपड़े की
पोटली में जो बापू की क्रल्मम से लिखे हुए तत्व, नीति और उपदेश से
भरे अनेक पत्र पढ़े हैं उन्हें में भी पाठकों के सामने रख दूं ।
एक बार कुछ परिस्थितियों वश मेंने यह काम हाथ में लिया
भी तो उसमें अनेक बाधाएँ सामने आ गई । पदचली तो यही थी कि
बापू के पत्रों को बिना प्रसंग के छाप देने में मुमे कोई लाभ नहीं
दिखाई दिया 'और प्रसंग के साथ छापने में मेरे गाँव की भणित भाषा
तथा मेरे स्पष्ट ओर निर्भीक रवभाव की रुक्षता जैसी चीज़ें मेरे सामने
थीं जो झाज के समाज के अनुकूल नह्दीं श्रतीत होतीं; अर प्रासंगिक
होने पर हृदय की बात को दबाकर तथा चिकनी घचुपड़ी बातें कहकर
सत्य को छिपाया जाय या किसी के भले बुरे लगने का ख्याल किया
जाय तो फिर इस पुस्तक की मौलिक रचना के नष्ट होने का ढर था
तथा इसका लिखना बेकार हो जाता था। इधर हिन्दी में पुस्तक
लिखने का भी मेरा यहद्द पहला अवसर हैं. इन्दीं सब बातों का ख्याल
करके दो वर्षे तक फिर यह काम य हीं पड़ा रद्दा । किन्तु अब कई
नें से जब बापू के पत्रों की मांग आने लगी तथा उनके पत्रों छोर
लेखों के संग्रहालय खोले जाने लगे ओर उधर मेरी स्वयं धारित
प्रतिज्ञाओं की अवधि भी समाप्त होने को आा गई तब मुझे यह
ख्याल आया कि बापू की इस अमूल्य देन का ागे भी पड़े रखना
उचित नहीं; जैसे भी हो इन पत्रों को प्रसंग सहित पाठकों के सन्मुखख
रख दी देना ठीक है ।
गांव में रद्दने के स्थान अनेक प्रकार के कीड़े मकोड़ों से तथा
आंधी मेंद इत्यादि से सुरक्षित तो होते नहीं; फिर कृषि के काम में
“फुरसत” जेसी चीज का कोई स्थान है ही नहीं जिसमें ऱारीब किसान
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