ध्वन्यालोक | Dhvanyaloka
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
428
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्रीधर प्रसाद पन्त -Shreedhar Prasad Pant
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ध्वन्यालोक छ
(१) प्रकृति 1
(२) वैकृत ।
वे वर्षे ग्रौर पदों को साथंक न मानकर वाक्य को साथेंक मानते है । उनका
मास्य मत है कि किसी भी प्रर्थ की प्रतीति वर्ण या पद से न होकर वावय से हुआ
करती है । भ्रतः वाक्य सार्थक होता है ! इस सम्जन्व में महाभाप्यकार पतब्जलि ने
धपना अभिमत इस प्रकार व्यक्त किया है -
“नित्याइच दाव्दा', नित्येपु च गब्देपु कूटरबैरवि-
चालिभिवंभवितव्यमनपायोपजन विकारिभि: व
ग्भ्ि (महाभाप्य )
झाब्द का भी जो लक्षण पतञ्जलि ने किया है, बह स्फोट शब्द का ही है ।
जैसे
'घोजोपलब्धिदुद्धिनिया हम प्रयोगेणासिज्वलित-
आकाशदेद शब्दद, एके च. पुरनराकाशम् 1”
तात्पयं यह है कि दाब्द की उपलब्धि हमें श्रोत्र के माध्यम से होनी है
भ्र्थात् हमारे कान में जितना श्राकाश हैं, उसी में दाब्द की उपलब्धि होती है।
क्योकि श्रोधेस्द्रिय एक झाकाश ही है ! श्रब यह प्रन उठ सकता है कि जब शब्द
में निहित वर्ण अपने उच्चारण के दूनरे क्षण ही नप्ट हो जाते है, तव शब्द का
अहण कंसे सम्भव है ? इसका उत्तर इस ध्रकार दिया जा सकता है कि पूर्व-पु्वे ध्वि
से उत्पन्न संस्कार का परियाक होने पर भ्रन्स्य वर्ण के ज्ञान से शब्द.का ग्रहण होता
है । इसीलिये महाभाप्यकार ने 'बुद्धि निर्ाह्म' झव्द का प्रयोग किया है बयोकि बुद्धि
ही शब्दों को ग्रहण करती है । चुद्धि में विभिन्न व्वनिया अपना संस्कार छोड़ती जानी
है श्ौर अन्तिम वर्ण से शब्द का ज्ञान होता है। यद्यपि शब्द सर्वेदा और सर्वे उपलब्ध
रहता है तथापि उसकी उपलब्धि किया प्रतीति उच्चारण से ही होतों है। चूकि
आाकास एक है, प्रतः उसमें रहने वालों धाव्द भी एक ही है। संच वात तो यह है
कि दाव्द,मे कोई सेद नहीं होता झपितु उसको व्यक्त करने वाली ध्वनि एवं देव भेद
के कारण शब्द में भेद धारोपित कर लिये जाते है। उदाहरण के रुप में कहा
जा सकता है कि जैसे श्राकाश तो यद्यपि एक ही होता है किन्तु व्यावहारिक रुप में
पटाकाश, मठाकाद, घटाकाश श्रादि रूप में उसके भेद मान सिपे जाते है ।
महर्षि पतबूजलि ने दाब्द को स्फोट रूप माना है । ध्वनि स्फोट का गुण है ।
जम मेरी पर प्राघात करने पर एक प्रकार का अ्रतुरणन होता है, यह भ्नुरणन हीं
अ्वेनि हे। स्फोट और ध्वनि में व्यज्ुप-व्पब्जक भाव सम्बन्ध यदि मान लें तो
भ्रनुचित न होगा 1 दूसरे झाद्दों में कहे तो कह सकते है कि स्फोट ही यज्ञ है
ध्रीर ध्वनि उसकी व्यडूजक क्योंकि ध्वनि से स्फोट रूप दाव्द अभिव्पक्त होता है दौर
समिष्यक्त हुए स्फोट रूप बब्द से भरे को श्रतोति होती है ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...