राइधू ग्रंथावली भाग 1 | Raidhu Granthavali Bhag 1

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Raidhu Granthavali Bhag 1  by आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये - Aadinath Neminath Upadhye

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये - Aadinath Neminath Upadhye

Add Infomation AboutAadinath Neminath Upadhye

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
महाकवि रइधूको उक्त विशाल-साहित्यका प्रणयन कर सकने योग्य कवित्व-प्रतिभा, बुंघ॑- जनोंको आनन्दित करनेवाले अपने पिता हरिसिंह संघवीसे मिलो थी, किन्तु सम्भवत: प्रेरणा एवं उत्साहके अभावमें उनका विकास प्रारम्भमें विधिवत्‌ न हो सका । जीवनक्षेत्र न चुन सकने एवं अपनेको मन्दबुद्धि समझनेके कारण बे सम्मवतः अत्यन्त व्यग्र एवं उदास रहने लगे थे । एक दिन जब वे चिस्तितावस्थामें ही सोए थे कि सरस्वत्ती-देवीने उन्हें स्वप्न दिया और काव्य-रचनाकी प्रेरणा दी । कबिने स्वयं ही. लिखा है :-- सिविणंतरे दिट्ट॒ सुबदेंबि.. सुपसण्ण, आहासए तुज्स हुउँ.. जाए... सुपसण्ण ॥ परिहरहिं मणचित करि भव्वु णिसु कब्बु, खलयणहें मा डरहि भउ हरिउ मद सब्वु ॥ तो. देविवयणेण पड़िउवि.. साणंदु, तक्खणेण सयणाउ उद्विड वि गयत्तंदु ॥ सम्मद ० १२२-४ अर्थात्‌ प्रमुदित मना सरस्वती देवीने स्वप्नमें मुझे दर्शन दिया तथा कहा कि में तुझ पर प्रसन्न हूँ। मनकी सारी चिन्ताएं छोड, हे भव्य, तु निरन्तर काव्य-रचना किया कर । दुजंनोंसे मत डर, क्योंकि भय सम्पूर्ण बुद्धिका अपहरण कर लेता है। उस देविके वचनोंसे प्रतिबुद्ध होकर में आनन्दित हो उठा । उसी समय मेरी निद्रा टूट गई और में बिस्तरसे उठ बेठा । उक्त स्वप्नने कवि को प्रबुद्धचित्त बना दिया । उसके बादसे कविने अपनी समस्त शक्ति काव्य-रचनामें लगा दी । यह्दी कारण है कि वह अपने अल्प जीवनमें भी एक विशाल साहित्यका निर्माण कर सका । कोई असम्भव नहीं यदि उसे सरस्वती देवी भी इष्ट रही हो । क्योंकि कविने अपनी रचनाओंमें सरस्वती अथवा वागेश्वरी देवीको स्थान-स्थानपर स्मरण किया है। रइघधू का स्वप्न-द्दन एवं उसमें सरस्वतीके साहाय्य का आर्शीवचन ऊपर देखा ही जा चुका है। फिर भट्टा रक श्री यद:कीति का पथ-निदेश भी उन्हें पुरा-पुरा मिला । यही कारण है कि वे साहित्य क्षेत्रमें प्रकाशमान नक्षत्रको तरह चमक सके । निवास-स्थल किसी भी महाकविका जीवन सावंभौमिक एवं सार्वेलोकिक होता है। भौगोलिक एवं राजनैतिक सीमाएं उन्हें बाँध नहीं सकतीं । उनका निवास-स्थल प्राय: वही होता है, जहाँ वे स्थिर होकर निवास करने लगते हैं। यह आवश्यक नहीं कि वे जहाँ जन्म लें, वहीं सदा निवास भी करते रहें । गोस्वामी तुलसीदासजोने भी कहा है : उपजहि अनत अनत छवि लहहिं । ने अपने सनकी तरंगों एवं उड़ानोंमें श्रमण किया करते हैं और प्रकृति उन्हें जहाँ रमा लेती है; वहीं उनका निवास-केन्द्र बन जाता है। महाकविं रइघृूके सम्बन्धमें भी ऐसा हो समझा जा सकता है। उन्होंने अपने जन्म-स्थानके सम्बन्धमें कोई भी निदिचित सुचना नहों दी, किन्तु रोहतक, पानीपत, हिसार, योगिनीपुर (दिल्‍ली) गोपाचल (ग्वालियर) उज्जयिनी आदिके विषयमें कविने जेसा वर्णन किया है तथा उसकी हिन्दी रचना 'बारा-सावना 'में प्रयुक्त हिन्दीकी प्रवृत्तिको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उसका जन्म या निवास स्थान पंजाब, हरयाणा एवं राजस्थानके सीमान्तसे लेकर मध्यभा रतके गोपाचल (ग्वालियर) तककें मध्यका कोई स्थान रहा है ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now