विनोबा के विचार | Vinoba ke Vichaar

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महादेव देसाई - Mahadev Desai

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वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्याग और दान पक झादमीने भलेपनसे पेसा कमाया है । उससे वह श्रपनी गृह्द- स्थी सुख-चेनसे चलाता है । बाल-बच्चोंका उसे मोह है; देहकी ममता है । स्वभावतः ही पेसेपर उसका जोर है । -दिवाली नजदीक आते ही वह अपना तलपट सावधानीसे बनाता है । यह देखकर कि सब मिला- कर खर्च जमाके अन्दर है और उससे 'पू'जी' कुछ बढ़ी ही है, उसे खुशी होती है । बड़े ठाटसे और उतने ही भक्तिभावसे वद्द [लचमी जीकी पूजा करता है । उसे द्रब्यका लोभ है, फिर भी नामका कहिए या परोप- कारका कहिए उसे खासा खयाल है । उसे ऐसा विश्वास है कि दान- घ्मके लिए--इसीमें देशको भी ले लीजिए--खचें किया हुश्ा घन ब्याजसमेत वापस मिल जाता है। इसलिए इस काममें वहद खुले हाथों खर्च करता है । श्रपने श्रास-पासके गरीबोंको उसका इस तरदद बड़ा सद्दारा लगता है जिस तरह छोटे बच्चोंको श्वपनी मांका । दूसरे एक झादमीने इसी तरह सचाईसे पेसा कमाया.था । लेकिन हसमें उसे संतोष न होता था । उसने एक बार बागके लिए कुझां खुद- वाया । कुआं बहुत गद्दरा था । उसमेंसे थोड़ी मिट्टी, कुछ छुरीं श्रौर बहुत पत्थर निकले । कुश्रां जितना गददरा गया इन चीजोंका ढेर भी उतना ही ऊंचा लग गया । मन-ही-मन वह सोचने लगा, “मेरी तिजोरीमें भी पेसेका ऐसा दही एक टीला लगा डुश्रा है, उसी श्रनुपातसे किसी शरीर जगह कोई गड्ढ़ा तो नहीं पड़ गया होगा ?”” विचारका धक्का बिजली जेसा होता है; इतने विचारसे ही वह हृड़बढ़ाकर सचेत




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