जैन धर्म प्रवेशिका भाग -१ | Jain Dharma Praveshika Volume-1

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Jain Dharma Praveshika Volume-1 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ११ | बेकार वंधी रहती हों और भी हज़ारों चीजें हों और फालत्‌ ही पड़ी रदती हों तो भी उसको यह चाह रदती है कि एक महल इस क्रिसम का भी बने और एक उस किसम का भी वने, ऐसी भी सवारियां हों श्र वैसी भी हों, यह भी हा और बहू भी हे, ग़रज़ संसारी जीव की इविस तो कभी भरती «दी नहीं है, श्रगर सारी दुनिया भी मिल जाय तो . नई दुनिया बनाने की विस लग जाती है। ' मान माया लोभ क्रोध यह चार कपाय कदलाती हैं जो जीवों को हर वक्त ही नाच नचाती रहती हैं, इनके इलावा रति झ्ररति हास्य शोक भय जुगुप्सा पुरुष वेद खी वेद और न्ुंसक वेद यह नो प्रकार की उनसे झैछ कम दर्जे की कपाय हैं जो नो कपाय श्रर्थात्‌ घटिया कपाय कहलाती हैं, रति भ्र्थाद्‌ फिसी वस्तु से भीति करना पसंद करना दिल लगा- ना, श्ररति श्रर्थात्‌ किसी वस्तु को नापसन्द करना, दास्य ्रथात्‌ इंसना खुश होना, शोक अर्थात्‌ रंज करना, भय श्रर्धाद्‌ ढर मानना, जुगुप्सा श्रर्थात्‌ घणा करना ग्लानि करना नफूरत करना, पुरुष वेद श्रर्थात्‌ पुरुप को ख्री के साथ काम भोग करने की इच्छा होना, खरी वेद अर्थात्‌ सी को पुरुष के साथ काम भोग की इच्छा हेना, नपुंसक वेद भ्र्यात्‌ दीजड़े को री श्र पुरुष दोनों के साथ भोग करने की इच्छा का हेना, इस मकार इन नो कपायों के द्वारा भी जीवों को '




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