राजभाषा हिन्दी नीति प्रयोग और समस्याएँ | Raj Bhasha Hindi Neeti Prayog Aur Samasyaen

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Raj Bhasha Hindi Neeti Prayog Aur Samasyaen  by सुभाष चन्द्र गौड़ - Subhash Chandra Gaud

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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11... 7० सरिट डे नि कर सामान्यतया राजभाषा का प्रश्न, किसी स्वतंत्र राष्ट्र के लिए अथवा स्वराज्य के लिए कोई प्रश्न होता ही नहीं है। महात्मा ने जिस स्वराज्य की कल्पना की उसमें यह प्रश्न था भी नहीं । यहाँ तक कि नेताजी सुभाषचन्द्र बीस की आजाद सरकार की भाषानीति भी स्पष्ट थी-राष्ट्रभाषा हिन्दी ही राजभाषा होगी । परंतु स्वतंत्रता संघर्ष के दौर का यह सहज “स्वीकार्य” स्वतंत्र भारतीय गणतंत्र के लिए एद असहज “असमंजस एवं अनिवारये” में बदल गया! ऐसा क्यों हुआ? शोध प्रबन्ध में इस मुद्दे का विशद आंकलन किया गया है | अनुसंधान का दृष्टिकोण पूर्वग्रहरहित 1 न «०५ तथा पर्यापत उदार है -“यदि पाकिस्तान तथा हिन्दस्तान का विभाजन न हुआ होता तो निश्चित ही राजभाषा का नाम हिन्दुस्तानी होता, किन्तु विभाजन के पश्चात हिन्द्स्तानी नाम दिया जाना कछ उचित प्रतीत नहीं होता था। अतः हिन्दी नाम दिया गया! “राजभाषा” अनावश्यक रूप से विवादास्पद बनायी गयी, वह हिन्दी जो स्वातंत्रय संघर्ष के दौरान जनजागरण की वाणी थी, स्वतंत्र भारत में उसे देश तोडक की संज्ञा तक दी जाने लगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है, और अनुसंघायक ने बड़ी बेबाकी से इस तथ्य को स्वीकार किया है तथा इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति की विकासयात्रा का रेखांकन, संविधान सभा में एतट्विषयक बहस से ही किया गया है, जो विभिन्‍न प्रावस्थाओं से गुजरते हुए, आज के दुर्भाग्यपूर्ण सच में बदल गयी है| प्रावस्थाओं के विषय में अनुसंधायक के निष्कर्ष ध्यान देने लायक हैं -- १... संविधान सभा ने जहाँ भारत देश के लिए राजभाषा अंकों एवं लिपि संबंधी महत्वपूर्ण निर्णय लिया, वहीं इसके कार्यान्वयन में लचीलापन रखकर आने वाली संतानों के लिए जटिलताओं एवं समस्याओं के गड़े भी तैयार कर दिये |” २... “स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व जो लोग समर्पण की भावना से स्वतंत्रता के लिए अथवा स्वराज्य के लिए संघर्ष कर रहे थे, हिंदी के पक्षधर थे, उन्हीं लोगों में से कुछ स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चातृ किस प्रकार क्षेत्रीय स्वार्थ के वशीभूत होकर बोलते पाये गये |” ३... “इसके पश्चात भाषा के संबंध में ७ अगस्त १६५६ को एक बहुत बड़ा मोड आया जब प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने संसद में आश्वासन दिलाया कि-*१. जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए, २. अनिश्चित काल तक अंग्रेजी सहयोगी भाषा रहेगी, ३. अंग्रेज़ी विकल्पभाषा तब तक रहेगी जब तक अहिन्दी भाषा -भाषी चाहेंगे।” प. नेहरू के इस बयान पर तत्कालीन सांसद प्रकाशवीर शास्त्री की प्रतिक्रिया भी रेखांकित की गयी है कि प्रधानमंत्री का यह आश्वासन इसी प्रकार की भूल है, जिस प्रकार की भूल उन्होंने कश्मीर तथ्य




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