स्तनपोषी जन्तु | Istanaposhi Jantu

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Istanaposhi Jantu by जगपति चतुर्वेदी - Jagapathi Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कि. 5 स्तनिन जन्तुओं की उत्पत्ति मंडूक के समकक्षीय जन्तु जल तथा स्थल के मध्य रह सकने से उभयचारी कहलाते हैं । उन्मुक्त बायु में श्वास लेने के लिए उनमें फेफड़े बने होते हैं, भूमि पर चल सकने या उचक सकने के लिए चार पाद होते हैं, उनका कुछ अजुकरण-सा कर कुछ मत्स्य भी खुली वायु में श्वास ले सकने के लिए फुफ्फुस की व्यवस्था रखते हैं। किन्तु फेफड़े तथा पैरों की व्यवस्था होने पर उभयचारी जन्तु जल तथा आाद्र ता की उपेक्ता नहीं कर सकते । उनके झंडे पानी में ही दिये जाते हैं । पानी में दी अरडों से शिशु उत्पन्न होकर पोषित होते हैं । मंडकों की कोमल श्लेष्मिक त्वचा भी उन्हें विशेषतया झाद्र स्थलों में रहने को बाध्य करती है, अझतएव जलखंड से अधिक दूर के स्थलों. तक वे नहीं रद सकते । नदी, तालाबों के निकटवर्ती स्थलों तक ही उनका निवास सीमित रहता है । सरीस्पों में बाह्य श्लेष्मा के स्थान पर शुष्क, अभेद्य शरीर-अच्छादक त्वचा होती है अतएव वे शुष्क वायु का सामना कर सकते हैं । सरीसपों के झंडे स्थलखंड पर ही दिये जाते तथा पोषित होते हैं । उनमें कुछ मिल्लियाँ उत्पन्न होती हैं जो उनके पोषण, श्वसन तथा रक्षा का प्रबन्ध करती हैं । झतएव उनसे जो शिशु उत्पन्न होते हैं वे यथेष्ट विकसित रहते हैं । इस प्रकार जल के आश्रय की बहुत कुछ दुर्बलता दूर कर सरीख्प दूर-दुर के स्थानों तके प्रसरित हो सकते थे । अतएव उनका स्थल-खंडों पर श्राघान्य स्थापित हो सका ।




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