महुए का पेड़ | Mahuye Ka Ped

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Mahuye Ka Ped by मार्कन्डेय - Markandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुबद्द जब बहू से मनोहर को देखा तो उनकी आँखें भर त्रायीं | किसी ग्वयालाती दुनिया में खोया-सा सो रहा था दी के कुद्दासे से उसका सारा शरीर मोद्दाविट्र हो गया था ! ने छुछ देर तक ढेखती रदीं, पर गाड़ी के समय का ध्यान श्राते दी वे उठ खडट्टी छुई श्राौर मनोदर को जगा कर कहने लगीं; “देख, जल्दी से यार हो जा, ठुके भी स्टेशन तक साथ चलना दोगा 1” मनोंदर को तैयार क्या दोना था; उसने जल्दी से छुता गले में डाल शिया श्र सोचमे लगा, मै श्रान बहू जी का साथ नहीं छोड़ेंगा, देखें वन चच्ची वो जूते पदनानी हूं [--फिर उसके जी मे श्ाया; कह दे, “ज््यी की तैवार कर दीजिए, जूते पहना दीजिए, मै लेकर चलूं ” पर उसका साइस न हृथ्ा,--शायद बहू जी सेरे सिर पर यह काम न मढ़ दें | पर इस बार थे नहीं इटेंगा ! और वह जूते शरीर बच्ची के श्ास-पास चक्कर काटता रहा | घट में जल्दी-जल्दी नददा-वों लिया था श्रौर वह बच्ची को कपडे भी पहना चुकी थी । व मनोहर डर दी रहा था कि कु करने को कह कर राल न हैँ कि बहू जी बोल उठीं; “क्या खड़ा-खडा दखता है; सनोइर वेद ! जल्दी से टिफ्न केस्यिर लेकर रसोई से पूड़ियाँ रखा ले; माँ ने चना ली हैं ।” शरीर बच्ची की ऑगुली पकड़ कर जूते के पास तक चली गयी | पर मनोहर कैसे रुकता, उसे रसोईघर तक तो जाना ही था | उसका मन कुछ भारी दो गया । स्टेशन दो मील था; पर जाते समय धूप नहीं थी । फिर भी मनो रास्ते के बड़े-बड़े पलास के पत्तों को देखता गया, क्योंकि कडाहे के तेल की तरह जलने वाली धूप श्रौर भडरे की तरह जलती गद होगी लोटते समय; बच्ची के जूते, माघ की ठारी, माधघो का चरमराता हुआ जूता तौर मालिक का चमरीघधा, कुछ भी तो उसे याद नहीं श्राया था । बस, पलास के प्ले, जो इस तपन मे दी सुश्ापंखी दृरियरी से नाच उठते हैं--शायद जानवरों की छाया के लिए, मनोहर के पैरो के जूते के लिए श्रौर हा; जूते १७




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