सर्वदेशिक साप्ताहिक . | Sarvdeshik Saptahik

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Sarvdeshik Saptahik by सच्चिदानन्द शास्त्री - Sacchidanand Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गरजे की संसद विदवध्म सम्मेलन हैरोंचोंड कक जमेंनो ग बींड (पं० जमेंनी) (वठांक से थाने) (९) इस प्रसंग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम प्रद्नवाचक 'सर्वनाम पर झाधा- रिक्त होकर बिष्व के ,घमेक देशों में [प्रचलित हुए है । बेव में कः प्रजापति वरमेदबर का नाम है। लेटिन प्रोक भावा में यही कित्र (00), |संस्कृत में किम, का धर क: रूप में पाया जाता है। भरवी ,काबा दाब्द में यही क शब्बा (पिता) के साथ संयुक्त होकर एक समस्तपद बना रहा है जिसदा अर्चे है क, अब्बा (पिता) । एक दूसरा अरदी दाब्द है किंबसा जिसका अरे डै महान । इनमें भी “कि' उसी के का छूपास्तर प्रतीत होता है । भारतीय परम्परा के कः प्रजापति के रूप में, फ़च विद्वान रेनें ब्वेनां के अनुसार, बहू उस सार्थमीम संकस्प का नाम है जो विविधतापूर्ण ससा थी प्रत्येक अवस्था में विद्यमान है । कऋगरवेद में यष्टी क: सीचीक मामक भ्रग्नि जे नाम में पाया जाता है। सौचीक का थर्थ है सुची (सुई) से उत्पन्न क । इसकी तुलना धर्मनी के मोकी नामक देवता से की जा सकती है जिसको शुची का पुत्र माना जाता है | यही कः संत्यवाचक “श्रद्धा” से संयुक्त होकर कोद्धा हो जाता है जिसकी तुलना झरवी के लुदा तथा मोरोदियन भावाओों के भाड से की जा सकती है । यही के भारत को कोल नामक जाति के भादि अुरुव भ्रणवा परमेदवर के दोतक क दब्द में पाया बता है। इसी क को लामने बाला कोविद्‌ (विद्वान) कहसाता है और भारतीय कबीर (एक “रहडस्यवादी कबि), कबीरा (एक रहस्यवादी गान), तथा अरबी कबासा अयता अद्टूदी कबाला में थी विद्यमान है घोर इसी को भारत के कब्दास नामक व्लब्दों में भो देखा जा सकता है । क्रास झर जओीवनधव के रूप में के इसी क का जब लेसनकला में प्रवेश हुभा तो उसके सिए एक ऐसे संकेत का प्रो होने लगा जिसको हम भाजकल कफ्रास कहते हैं । वेद में इसी का नाम कब है। इदलिए के थदार का आवीनतम रूप वही क्रास है जो ब्राहमी सा पूर्व पूर्वेब्राहमी सिन्घुलिपि में पाया जाता है भोर भ्षिकांस लिपियों में के झकर इसी क्रास का कोई न कोई रूपान्तर प्रतीत होता है । बेद में इस परम जअनिवंत्रनीय ससा को 'संप्रदन' सी कहा जाता है । नकास हारा संकेतित इस कः धववा संप्रदन में दो तत्वों का संयोग है । उनमें है एक झपरिवर्तनसील सत्ता है जो एक धन्य तत्त्व से झमिन्त सम्बन्ध रखती है। इस दूसरे तत्व को बेदिक साहित्य में भाववुत्त कहा जाता है जो नबिरम्तर परिवर्तेतसील है। प्रथम का नामकरण सततासूचक अस्‌ घातु से 'निष्यस्म असु कब्द से किया बया तो, दूसरे का नामकरण झसु के वर्भ-बिपये रा “उस” शब्द हे किया गया । बढ़ी दोनों नाम क्रमस: अस्मत्‌ भौर बुच्मत्‌ झब्दों में भी पाए जाते हैं तथा बेदान्त में नामस्पात्मक जबत्‌ के ये ही नयोगों तत्व माने जाते हैं। धतु सब्द बेदिक भसुर घोर अवस्ता के थहुर में जी विद्यमान है जो अपरिव्सनशील सत्ता का सूचक प्रतीत होता है । इसके विपरीत “उस” शब्द बेदिक उपा के मूल में देखा जा सकता है ओर इसलिए बा को पुनर्पु्जायमा कहते हुए निरम्तर परिवर्तनशील माना जाता है । देव में इव दोनों तत्वों को ऋरमश: सत्पम्‌ भौर भनुतं भी कहा जाता है । -च्छतस्य चक्र” को वेद में सत्य की स्थिर पूरी पर निरम्तर घूमने वाला माना थाता है । बेद में माववुत के ऋतम्‌ मोर भनुतं न।मर दो पद्न मानते न्बये है। क्रास में बही दोनों उसकी पड़ी लकीर के दो अर्घाँधों डरा संकेतित हूँ । इग्हीं की कभी-कभी दो अश्यों के रूप में बल्पना की जाती है भौर तब “के की शक ऐसे शी घायामी रथके रूप में कह्पता की जाती है जिसमें दुतनामो वश चुड़े हों । (रब कमाहुईवदरबमाधुम्‌ ऋ० ४. र३.२.) । यह एक ऐसा रथ है थो निरम्तर चारों घोर धूमता रहता है (परि नक्षति ऋण ४.४ ३.४. ॥ क्रास का प्रयोग भव इस भनियंचनीय सता को अभिव्थक्ति देवे के सिने हुआ जिसका नाम क था, तो उसके विजिस्न रूपों भौर संकेतों को प्रकट करने के लिए क्रास के अनेक रूपात्तर हो गए । इसीलिए रेनें स्वेनां ने जब धपन “दि सम्बोलिजम यू दि क्रास नामक पुस्तक लिखीं तो उसमें यह स्वीकार किया कि इतना लिखने पर भी क्रास के विविध पक्षों घोर कप का केवल साधारण भौर सतही उत्तेस ही हो पाया है । क्रास के प्रतीक का थो सर्वाधिक प्रचलित रूप प्राचीन परम्परा में मिलता है उसी को जीवन वृद्ष का नाम दिया गया है और वह योरोप, मध्यपुरव, मारत तथा सुदूरपूर्व में समान रूप से पाया जाता है। इस प्रतीक में क्रास की खड़ी रेखा को बुक का तना माना जाता है धोर उसको काटने वाली एक अववा अधिक पड़ी रेहाएं उस वक्ष की झालाएं मानी जाती है । फिर भी समस्त प्राचीन विश्व में एक समान प्रथा के अनुसार जीवन के विद्वास क्री कल्पना वाक्‌ भथवा दाब्द के प्रादुर्माव के साथ मो की जाती है बीर तदनुसार जीवन-विकास की विभिन्‍न शवस्थाओं को अप्रों और संख्याधों के रूप में कल्पित किया जाता है। भारत के तन्त्र और मर साहित्म में तथा यूनान की दाझंनिक परम्परा में तो इसका विज्ञेव महत्व है; ही, परन्तु किसी न किसी रूप में इसके धवक्षेष यहूदी, भरवी तथा चीनी परम्पराक्ों में भी प्राप्त होते हैं । इसी कल्पना का समावेश करते हुए जीवन वृक्ष का चित्र एक तिन्षु मुद्रा पर भी पाया जाता है। उसको यहां प्रस्तुत किया जा रहा है:-- वक्ष का जो छोटा-सा तना है वह मःरतीय भरवी परम्परा में भ्रकार होने के साथ-साथ एक की संख्या का मी घोतक है । इस तने के ऊपर जो पीपल के पत्ते के धाकार का चिह्न है वह सित्पू लिपि का लकार है। इन दोनों के मेल से धल्‌ शब्द बनता है जिसकी तुनना वेदिक धलं, ग्रीन अलों (200), इंगलिए बलू (31) अथवा बाल (7) से की जा सकती है । इनमें है प्रत्येक समग्रता का चोतक है जिसमें कुछ देव की मलक भी मिलती है । इस चित्र में मी बलू उस अद्धैत तत्व का दयोतक है जो दत की ओर अग्रसर हो रहा है । इसी ढ्वतकी धोर संकेत करने वाली वे दो वक्र रेखाए' हैं जिनसे एक स्यंगी पशु चित्रित किए बए हैं। इसी ढत से एक गोलाकार ब्त प्रादुमूत होता दिखांया मया है जिसको एक व्त्ताकार झण्डा कह सकते हैं भोर उसमें रखे हुए सात घून्य अवसिष्ट तोन से लेकर नो तक की संक्याओों को भोर संकेत करते हैं । इस वत्त के ऊपर एक लम्बा तना है जिसमें से नौ पत्तियां निकलती हैं जो मध्य, वाम तथा दक्षिन पद्म में तीन-तीन होकर बंटो हुई हैं। मोसाकार वृत्त वस्तुतः सिन्षु लिपि का ओंकार है जिसकी तुलना प्रीक और रोमन लिपियों के “भो' (0) से की जा सकती है। इस बोकार के ऊपर, रोमन लिपि के एक (हव) के समान हो सिन्पु लिपि का मकार है। इस प्रकार भों ्ोर म के मेल से जो मानोप्राम बनता है वही वैदिक भ्रोम्‌ है । यह ओम्‌ प्रपने दोनों शोर (नीचे भोर ऊपर) नवधा सुषिटि से जुड़ा हुआ है। ऊार की सुष्टि के अन्तगंत नौ पत्तियां भाती हैं नीचे की सुष्टि में प्रात शून्यों तथा दो एकश्दगियों की गणना होती है। यहू तथ्य घोम्‌ के प्रणव नाम की साथंकता सिद्ध करता है क्योंकि प्रभव का भर है प्रकृष्ट मव अर्वाद्‌ नवषा सृष्टि से प्रकुष्ट रूपेन संयुक्त । इस प्रथव अगवा झोम्‌ के पूर्व उपयु बत भलु का प्रयोग होने से अलू नामक मायोग्राम बनता है जिसकी तुलना यहूमी परम्परा के एलोहीम तथा भरी अल्लाइ से की जा सकती है । (क्रमश) -एरामचलवराव वस्देमातरमू




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