सोहन काव्य - कथा मंजरी | Sohan Kavya Katha Manjari

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Sohan Kavya Katha Manjari  by सोहनलाल जी - Sohanlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नूपति ने चहूं श्लोरा दूत दौड़ाये । पर कोई भी पता नहीं ला पाये सागर तक सेवक जा जा करके श्राये । कहीं कंवर को खोज नहीं वे पाये । सेना भी कँवर को ढूढ़ ढूढ़ है हारी । कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं टारी ॥ २२ ॥। मां की झाँखों से श्रश्न,धार ना टूटे । मेरे भाग्य क्यों श्राज यहाँ पर फूटे। बिना कँवर के जीवन विष की घूटें । वैभव के सब भोग रानी के छूटे। शोक समुद्र में डूबे तात महतारी । कर्मों की रेखा टरो. कभी नहीं टारी ।। २३ ॥1 बुला नजूमी उसको सब बतलाया | खोया मेरा कँवर नहीं मिल पाया । चिन्ता सारी. तजें श्राप महाराया । सकुशल कँवर श्रायेंगे उत्तर श्राया। तिलभर भी नहीं भूठ दो शंका निवारी । कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं टारी 1! २४ ॥। हय के ऊपर कँवर उड़ा ही जाये । लेकिन हय को नहीं रोक वह पाये । ध्रपनी भूल पर रह रहकर पछताये । थक करके श्रव तो चूर चूर हो जाये । मेरी बुद्धि गई हाय तब मारी । कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं टारो ॥ २५ ।॥॥ पांवों से एक कील तभी दव जाये । नभ से गिर कर श्रश्व;'घरा पर श्राये । धघ्राते श्राते त६ से; वह टकराये । भयभीत कँवर था. होश नहीं रह पाये । गिरने से मूर्छा श्राई उसको भारी |. कर्मों की रेखा टरे कभी नहीं टारी ।। २६ ॥। कई दिनों के वाद होश जब श्राया । भव्य कक्ष में पड़ा स्वयं को पाया ॥ इधर उधर देखा तो सिर चकराया | न




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