भूगोल : गंगा-अंक [वर्ष १५] [जनवरी १९३९] [संख्या 9] | Bhugol : Ganga-Ank [Year 15] [Jan 1939] [No. 9]
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
102
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गड़ा का प्रवेश १५
दुग की मीनार के समान प्रतीत होने लगती है। बूढ़
गंगा बहुत घीमी चाल से टेढ़ी मेढ़ी होकर बहती है ।
बहुधा इसके मार्ग में रेत के टीले या नरकुल के समूह
बाधा डाले रहते हैं । इस कारण जब कभी वो
अधिक हो जाती है, तो इसका जल चारों श्योर फेल
जाता है. तर अधिक समय तक टिक कर हानि पहुँ-
चाता है । नहर विभाग ने इसके सुधार के लिये
च्छा उद्योग किया है । इस खोद कर गहरा और
सीधा किया गया है । प्रति बष इसकी सफाई की
जाती है, जिससे नरकुल आदि नहीं उगने पाते हैं ।
गड्डा और पहाड़ (बांगर) के बीच के इलाके को
तराई के नाम से पुकारते हैं । यद कहीं कहीं दस मील
तक चौड़ी है । इसका क्षेत्रफल ३९५ वर्गमील है । इस
प्रदेश के झंतरगंत फे ऊपुर-बदरिया, निधपुर, सोरों का
घ्याघा भाग, पटियाली का एक तिहाई, पचलाना, साहा-
बार; आज़म नगर प्गनों के भी कुछ भाग आ जाते
हैं। यहाँ की प्रथ्वी बहुत उपजाऊ है। इस में हरा भाग
( बनस्पति सम्भन्धी भाग ) बहुत है। इसा कारण
यहाँ के किसान क्रीमती फ़सलें उगाते हैं। गेहूँ तो
लगातार बाते हैं । तराई का सब से बहुमूल्य भाग
गज्ञातट पर ही स्थित है । इसकी विशेषता यह है कि
इसमें ऊग्ब के लिये सिंचाई तक की शावश्यकता नहीं
पड़ती है । इससे कुछ ही हारती हुई जमीन बूढ़गज्जा
के तट पर है । तट से दूर जाने पर धारे धघोरे जमीन
को अच्छाइ भी कम होता जातों है | बूढ़ गड्डा के
दक्षिण में प्रथ्वी बहुत निम्नकोटि के रत या ऊसर की
है किन्तु पहाड़ ( दांगर ) के निकट प्रथ्वी फिर अच्छी
हो चलतों है । यहाँ ऊख श्र गेहूँ के खेत फिर दिख-
लाइ पड़ने लगते हैं ।
ऊपर यह उपजाऊ मिट्टी खोर कर देखो जाय तो
नीचे रत ही रेत मिलता है । इससे जहाँ ऊपर का
पत गहरा है वहाँ ही प्रथ्वी अधिक उपजाऊ है ।
ज़मीन चौरस कहीं भा नहीं है। इस से अधिकतर
मिट्टी झाकर गड्ढे आदि नोचे स्थानों ही में जमा
हुई है. |
जहाँ पर खेती नहीं होती है वह स्थान पड चराने
के कम में आते हैं । यह काय श्रद्दीर या गड़रिया ही
करते हैं इन लोगों को यहाँ चरवैया, चौपेया या
ग्वाला के नाम से पुकारते हैं । उजाड़ स्थानों में ढाक
के बन है । गड्डा और बूढ गज्जा को पटरियों में नर-
कुल खूब होता है । गांव वाले इनके ऊपर की घास,
जिसको गांडर के नाम से पुकारते हैं, श्औौर सेंठा को
छप्पर आदि छाने के काम में लाते हैं । दलदलों में
खस नामक घास भी पाइ जाती है। इसे इत्र निकालने
व्बौर टट्टियां बनाने के काम में लाते हैं । यह काय
सम्पूणतया कंजर लोगों के हाथ में है ।
इस जिले में गज्जा से चार मील पर बुद गज्ञा के
तट पर सोरों नामक एक प्रसिद्ध तीथ स्थान है ।
सम्पूण भारत से यात्री मथुरा जाकर यहाँ ते हैं ।
व बूढ़ गड्डा और गढ़ियाघाट पर गज स्नान भी
करते हैं । सब से प्रसिद्ध मेला प्रणिमा का गहन
में होता है । बूढ़ गड्डा यहाँ पर हरिपदी नामक एक
तालाब बनाती है । इस में यद्यपि बहुत समय से
मनुष्यों की अस्थियां पड़ती चली शा रही हैं, किन्तु
वे सब तीसरे ही दिन जलरूप हो जाती हैं । यात्री
लोग इसका जल भर भर कर ले जाते हैं । इसमें १८
पक्कें घाट बने हुये हैं । बहुत से मन्दिर भी बने हुए
हैं और पीपल के ब्रक्ष भी हें । यहां लगभग तीस
घमशालायें हैं, जिन्हें ग्वालियर श्औौर भरतपुर के
घनात्य व्यक्तियों ने ही अधिकतर बनाया है। इस
छोटे से नगर की प्रायः सभी सड़कें श्यौर गलियां
पक्की हैं ।
सोरों का असली नाम ऊकलक्ेत्र था । जब
विष्णु भगवान ने बाराह अवतार लेकर हिररयकश्यप
का बघ किया तब से इसका नाम झूकर दचोत्र पड़ गया
है । पुराने नगर के स्थान पर एक टीला है. जिसे लोग
किला के नाम से पुकारते हैं । कहते हैं कि शभी
ढाइ सौ वष भी न हुये होंगे जब गज्जा जी इसी के
नीचे बहती थीं । व इस पर कंबल शेख जमाल का
मकबरा और सीताराम जी का मन्दिर ही बाकी है ।
पर इसके ऊपर बड़ों बड़ी इटठें बिखरी हुई हैं श्औौर
दीवालों के चिन्ह सब स्थानों पर मिलते हैं । जनश्रुति
के आधार पर इसका निमोण राजा सोमदत्त ने किया
था | किन्तु इसकी नींव राजा वेणु चक्रवर्ती के हाथों
पड़ी बतलाइ जाती है । यद्यपि कद एक. मन्दिर बहुत
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