संस्कृति नाटकों में समाज चित्रण | Sanskrit Natako Me Samaj Chitran
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
307
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साहित्य झर समाज ्
होता है तब प्रकृति से उसके सम्बन्वों की उपेक्षा कैसे की जा सकती
है। जिस गाय का यह टध पीता है, जिस अब्व या गज पर सवारी
कंरता है, जिस शुक को यह वार-वार पाठ पढाता है, क्या वह
विस्मरणीय है * ये सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समाज के अ्रग हैं
वयोकि मानव-जीवन के घात-प्रतिघातो, किया-प्रतिफ्रियासो मे इनका
भी अदट्टूट पोग है । इसी प्रकार रीति-रिवाज, रहन-सहन, वेश-झूपा,
चोल-चाल ग्रादि भी सामाजिक परिपादर्व में महत्वद्दीन नही हैं । सक्षेप
में हम यह कह सकते हैं कि देश-काल के वातावरण मे मनुष्य की
समप्टि ही समाज है । व्यप्टि के विना समप्टि की श्र समप्टि से
विरहित व्यप्टि को कल्पना केवल दुप्कत्पना हो सकती है ।
पीछे कहा गया है कि साहित्य साहित्यकार के ग्रन्तर का
हित्य प्ौर सरल थत्द-चिन हे, जिसमे देश-काल की प्रति-
साहित्य हा समाज- च्छाया अवश्य होती है। इसी प्रतिच्छाया में
संबंध निरुपरा साहित्य समाज से सम्बन्धित होता है । इसके
अतिरिक्त साहित्य से समाज प्रेरणा भी लेता है। हमार प्राचीन
साहित्य भ्राज तक प्रेरणा का स्रोत बना हुझ्मा है। साहित्य अपने गौण
रूप मे मनोविनोदन करता है, किन्तु श्रमुखतया सामाजिक निर्माण में
योग देता है । साहित्य का सत्यादय सामाजिक भूमिका पर प्रतिथ्ठित है,
दथिवाश कल्याणकारी है झीर सुन्दराश कलामय होने से मन को मोहित-
विनोदित करता है । बाबू गुलावराय ने साहित्य झौर समाज के एवं
अ्न्योन्याश्रय सम्बन्ध की चिवेचना करते हुए कहा है कि *कयि श्रौर
लेखक किसी श्रद् मे समाज के प्रतिनिधि होते हैं और किसी श्रद्य मे वे
समाज की झपनी प्रतिभा श्रीर व्यक्तित्व के आधार पर नये भाव
शरीर विचार प्रदान करते है। समाज कवि और लेखकों को चनाता
है श्रीर लेखक तया कवि समाज को बनाते हैं । दोनों में श्रादान-
प्रदान तथा क्रिया प्रतिक्तिया-माव चलता रहता है । यहीं सामाजिक
सननसि का नियामक सुन यनाता है 17
यह उक्ति उचित दी प्रतीत होती है कि साहित्य समाज का
दपेंणा होता है । जेसा दिंव होता है बसा ही श्रतिविव होता है ।
समाज ये आचार-विचार, चाल-दढाल, उत्यान-पतन का ज्ञान उसके
१. घायू गुतावराय काव्य के रूप, पूल ८
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